Friday, February 4, 2011

अंगरेजी के मंच पर हिंदी


मशहूर इतिहासकार रामचंद्र गुहा की हाल ही में एक किताब आई है द मेकर्स ऑफ मॉडर्न इंडिया। गुहा ने इस किताब में मौजूदा भारत के निर्माण में योगदान देने वाले राजनेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं की जिंदगी और उनके कामों की विश्लेषणात्मक जानकारी दी है। इस किताब में अगर डॉक्टर राममनोहर लोहिया का जिक्र नहीं होता, तो आश्चर्य की बात होती। गुहा इसमें अंगरेजी को लेकर उनके एक कथन को उद्धृत करने से खुद को रोक नहीं पाए हैं। अंगरेजी को लेकर लोहिया का कथन है-नदी अपनी धारा बदलेगी, अंगरेजी निरर्थक हो जाएगी। रूसी भाषा लंबे डग भरेगी। कुछ समय बाद रूसी भाषा इसी तरह इठलाएगी। रूसी व अंगरेजी के बीच आगे बढ़ने का द्वंद्व होगा। अंगरेजी अंतरराष्ट्रीय स्तर की भाषा है, यह मिथक ही रह जाएगा।
लेकिन आज जिस तरह अंगरेजी को भारतीय समाज में अहमियत मिलती नजर आ रही है, उसमें यह सवाल उठने लगा है कि क्या लोहिया की यह भविष्यवाणी गलत साबित होगी? वैसे भारतीय राजनीति में एक पीढ़ी ऐसी रही है, जिसके लिए हिंदी न सिर्फ देसी सम्मान, बल्कि संघर्ष की भाषा रही है। लेकिन समय के साथ वह पीढ़ी लगातार खत्म होती जा रही है। हालांकि एक ऐसा वर्ग जरूर है, जिसके लिए मीडिया में हिंदी का बढ़ता प्रभाव और हिंदी मीडिया का दैत्याकार विकास उनके हीनता बोध को एक हद तक परे रखने का जरिया बनता है। इन्हीं में हिंदी मीडिया और संस्कृति की दुनिया में विचरण करने और अपनी रोजी-रोटी कमाने वाला वर्ग भी शामिल है। उसे जब अंगरेजियत भरा समाज अपने साथ बुलाता है और बैठाकर सुनता है, तो वह हिंदी को महत्व मिलते देखता है। फिर वह हिंदी के जयगान में कूद पड़ता है।
खालिस अंगरेजी ढंग से शुरू हुए जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में इस साल हिंदी साहित्यकारों और समीक्षकों को अपनी तकरीर सुनाने का मौका मिला, तो उन्हें लगा कि हिंदी की स्वीकारोक्ति का दौर शुरू हो गया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की आर्थिक मदद के सहारे शुरू हुए इस लिटरेचर फेस्टिवल में हिंदी को भी मंच देना स्वागतयोग्य है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसी दौर में हमारे प्रधानमंत्री को सरकारी बाबुओं की अंगरेजी में खराब ड्राफ्टिंग से कोफ्त होने लगी है। उन्हें सड़कों के किनारे सार्वजनिक निर्माण विभाग, परिवहन निगम या नगर निगमों के साइनबोर्डों पर हिंदी की टूटती टांग तो नहीं दिखी, पर कैबिनेट सचिव केएम चंद्रशेखर के जरिये ड्राफ्टिंग सुधारने का फरमान जारी कराना उन्हें बेहद जरूरी लगा।
तो क्या मान लिया जाए कि लोहिया की भविष्यवाणी गलत साबित होने वाली है? ऑक्सफोर्ड या दूसरे विदेशी संस्थानों से निकलकर देसी राजनीति करने का स्वांग करने वाली पीढ़ी को लोहिया के ये विचार बेमानी लगते हैं। उसे लगने लगा है कि अंगरेजी ज्ञान के चलते ही बराक ओबामा को भारत की चौखट पर नाक रगड़ना पड़ा या फिर डेविड कैमरन पाकिस्तान को चेतावनी देने लगे या फिर चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ को भारत आना पड़ा।
तर्कशास्त्री सत्य को दो रूपों में देखते हैं। इस लिहाज से देखा जाए, तो यह एक सचाई तो है ही, लेकिन पूरी सचाई यही नहीं है। दिल्ली स्थित स्पेनिश सांस्कृतिक केंद्र के निदेशक ऑस्कर पुजोल जब कहते हैं कि हिंदी में क्षमता है, दम है और सुंदरता भी, तो वह एक सत्य को ही उजागर कर रहे होते हैं। उनका कहना है कि यह मिथ है कि अंगरेजी सबसे ज्यादा बोली और समझी जाने वाली भाषा है और कार्य-व्यापार में उसका इस्तेमाल होता है। पुजॉल का कहना है कि स्पेनिश अंगरेजी से कहीं ज्यादा कार्य-व्यापार की भाषा है। हाल ही में जारी इंटरनेट वर्ल्ड स्टेट्स के आंकड़े भी दूसरे अर्थ में पुजोल की ही बात को आगे बढ़ाते हैं। इसके मुताबिक, अगले पांच वर्षों में इंटरनेट दुनिया में चीनी भाषा अंगरेजी को पछाड़ देगी।
यह सच है कि अपने यहां राजकाज और ताकत की भाषा अभी तक अंगरेजी ही है। पश्चिमी सोच वाले कथित पैराटूपर राजनेताओं की खेप को अंगरेजी में ही काम करना सुविधाजनक लगता है। लेकिन इंटरनेट वर्ल्ड की रिपोर्ट में कहा गया है कि चीन के राजनेताओं ने अपनी भाषा में इंटरनेट के विकास के लिए जो कदम उठाए हैं, उसका ही असर होगा कि इंटरनेट की नंबर वन भाषा उनकी अपनी चीनी ही होगी। इन अर्थों में अपने प्रधानमंत्री का आदेश भारत की लचर भाषा नीति को ही दर्शाता है।


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