Sunday, March 27, 2011

संवाद की भाषा


संस्कृत को देवभाषा माना जाता है। इसी आधार पर नागरी लिपि को देवनागरी कहते हैं। विद्वान लोग बताते हैं कि संस्कृत भारत में कभी जनभाषा नहीं रही, जैसे मुगल काल में फारसी और ब्रिटिश काल में अंग्रेजी जन भाषा नहीं बन सकी, लेकिन आदि काल से धार्मिक कृत्यों की भाषा संस्कृत ही रही है। संस्कृत ही लंबे समय तक साहित्य की भाषा रही। बाद में अपभ्रंश, पाली आदि जनभाषाओं में भी साहित्य रचा जाता रहा। अंतत: आधुनिक भारतीय भाषाओं का उदय हुआ और लगभग पूरा का पूरा भारतीय साहित्य इन्हीं भाषाओं में लिखा जाने लगा। इससे सबसे बड़ी बात यह हुई कि कम पढ़े-लिखे लोग भी साहित्य पढ़ने लगे और जो निरक्षर थे, वह सुनकर इसका आनंद लेने लगे। कह सकते हैं कि जब जन भाषाओं में साहित्य लिखा जाने लगा तब जाकर वह जनता के करीब आया। इससे साहित्य का और उसकी भाषा का चरित्र भी बदला। इस परिवर्तन को वाल्मीकि के रामायण और तुलसी दास के रामचरितमानस के बीच महसूस किया जा सकता है। वाल्मीकि की रामायण शायद कुछ हजार या लाख लोगों ने पढ़ी होगी पर रामचरितमानस असंख्य पीढि़यों से करोड़ों नर-नारियों की प्यास बुझाता रहा है। विडंबना यह है कि जीवन की भाषा बदली तो साहित्य की भाषा बदली, व्यवसाय-वाणिज्य की भाषा बदली तो राजनीति और प्रशासन की भाषा बदली, लेकिन धर्म की भाषा नहीं बदली है। आज भी विवाह, पूजा-पाठ, दाह संस्कार आदि अवसरों पर उन्हीं मंत्रों का पाठ किया जाता है। इस स्थिति पर विचार करने की जरूरत है। संभव है, किसी जमाने में ऐसे ब्राह्मण होते होंगे जो संस्कृत मंत्रों और श्लोकों का सही उच्चारण कर पाते थे और उनका सम्यक अर्थ समझ सकते होंगे। आज ऐसे ब्राह्मणों की संख्या उंगलियों पर गिने जाने जितनी होगी। अशुद्ध संस्कृत, अशुद्ध उच्चारण और जजमान की समझ में कुछ भी न आना जैसे अन्य अनेक कारण हैं कि धार्मिक अवसरों पर जो संस्कृत के श्लोक पढ़े जाते हैं, उनका जन भाषाओं में अनुवाद हो और जनभाषाओं में ही उनका चलन हो। इससे देवी-देवताओं और भारतीय जनता का संबंध नया तथा प्रगाढ़ हो सकता है। अभी तो यह संबंध ज्यादातर एक ऐसे दुभाषिए के जरिये होता है जिसे न तो देवी-देवताओं से मतलब है और न अपने जजमानों से। उसका एकमात्र सरोकार पंडिताई के अपने व्यवसाय से होता है। अगर किसी को यह प्रस्ताव अजीब लगता हो तो मैं बाइबिल का उदाहरण देना चाहूंगा। मूल बाइबिल हिब्रू भाषा में लिखी गई थी। बाद में लैटिन भाषा में उसका अनुवाद हुआ। पोप रोम में ही रहता था और चर्च के पूरे तंत्र पर उसकी हुकूमत थी। तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में ईसाइयत का घोर पतन हुआ। इसका एक पहलू यह था कि चर्च के अधिकारियों द्वारा मुक्ति पत्र बेचे जाने लगे। किसी ने कितना भी पाप किया हो, उसने मुक्ति पत्र खरीद लिया तो माना जाता था कि उसके सारे पाप धुल गए और उसे ईश्वर की कृपा जरूर प्राप्त होगी। लोग इस तरह की बातों पर इसलिए भी विश्वास कर लेते थे, क्योंकि बाइबिल उन्होंने पढ़ी ही नहीं थी। बाइबिल लैटिन भाषा में उपलब्ध थी और यूरोप के विभिन्न देशों के लोग अपने-अपने देश की भाषा बोलते-लिखते और पढ़ते थे। रोमन चर्च की तानाशाही का पहला विरोध किया जर्मनी के मार्टिन लूथर ने। उसने ईसाइयत की रूढि़यों का जबरदस्त विरोध किया, मुक्ति पत्रों को धोखा करार दिया और बाइबिल का अनुवाद अपने देश की भाषा जर्मन में किया। इसके बाद उसे चर्च से बाहर निकाल दिया गया। तब उसने प्रोटेस्टेंट मत की स्थापना की। मार्टिन लूथर की देखा-देखी अंग्रेजी, फ्रेंच, इटैलियन आदि भाषाओं में भी बाइबिल के अनुवाद होने लगे। परिणामस्वरूप ईसाइयत का अभूतपूर्व विस्तार हुआ और लोगों के लिए बाइबिल को पढ़ना आसान हो गया। आज लगभग हर भाषा में बाइबिल उपलब्ध है। कल्पना कीजिए, अगर मार्टिन लूथर ने विद्रोह नहीं किया होता और बाइबिल सिर्फ लैटिन तक सीमित रह जाती तब भी क्या ईसाइयत इतनी तेजी से फैलती और फैलती भी तो कितने लोग उसके मर्म तक पहुंच पाते। मेरे खयाल से बाइबिल के संदर्भ में जो कहानी रोमन की है, धार्मिक विधि-विधान के क्षेत्र में वही कहानी संस्कृत की है। संस्कृत के कारण विवाह की वेदी पर बैठे हुए वर और वधू समझ ही नहीं पाते कि वे किन बातों की शपथ ले रहे पूजा के दौरान घर के लोग समझ नहीं पाते कि वे किस देवी या देवता से क्या निवेदन कर रहे हैं और अन्य अवसरों पर भी तोते की तरह वे श्लोक दुहराते जाते हैं जिनका गलत-सही उच्चारण उनका पंडित करता जाता है। इस तरह संस्कृत जो दुनिया की महानतम भाषाओं में एक है भारतीयों के लिए काले जादू की भाषा बन गई है। जब वेदों का भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो सकता है, उपनिषदों का हो सकता है, स्मृतियों और पुराणों का हो सकता है तो कोई वजह नहीं है कि धार्मिक आयोजनों में पढ़े जाने वाले श्लोक संस्कृत मे ही चलते रहें। जब दुनिया भर के ईसाई अपनी-अपनी भाषा में ईश्वर को संबोधित कर सकते हैं तो कोई वजह नहीं कि हमारे देवी-देवता लोक भाषाओं में की गई प्रार्थनाओं को अनसुना कर दें। वैसे ईश्वर से असली संवाद तो मौन में ही होता है जो सभी भाषाओं में समाहित है।

Monday, March 21, 2011

अंगरेजी के बावजूद


इस बार से संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) की आरंभिक परीक्षा में कुछ बदलाव किए गए हैं। इससे कई लोगों को लग रहा है कि अब उसमें ऐसे परीक्षार्थी नहीं सफल नहीं हो पाएंगे, जिनके पास अंगरेजी की पृष्ठभूमि नहीं है। अब यह परीक्षा पहले चरण में सीसैट’ (सिविल सर्विसेज एप्टीट्यूड टेस्ट) के रूप में संपन्न होगी। इसका उद्देश्य यह पता लगाना होगा कि आवेदक में प्रशासनिक निर्णय लेने की क्षमता है या नहीं। हालांकि इसमें उन सभी विषयों का समावेश होगा, जिनसे प्रतियोगी के रुझान और त्वरित निर्णय लेने की क्षमता का पता लग पाएगा। ऊपरी तौर पर यह निर्णय न तो गलत लगता है और न ही पूर्वाग्रह से ग्रस्त। मगर शंका व्यक्त की जा रही है कि जो लोग प्रिलिम में अपनी पसंद के एक विषय को चुनकर निकलते थे, अब अंगरेजी में होने वाले अभिक्षमता परीक्षण (सीसैट) के कारण उनके लिए दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो जाएंगे। उल्लेखनीय है कि पिछले कई वर्षों से यूपीएससी परीक्षाओं में भारतीय भाषाओं को माध्यम के रूप में ग्रहण करने वालों की संख्या न केवल बढ़ी है, बल्कि वे आईएएस, आईपीएस आदि बनने में भी सफल हुए हैं।
भाषा चूंकि भावनाओं की अभिव्यक्ति का एकमात्र साधन है, इसलिए इसके महत्व को नकारा नहीं जा सकता। भारतीय भाषाओं को वैकल्पिक माध्यम बनाने की बात सबसे पहले 1979 में कोठारी आयोग ने कही। उन दिनों के लिहाज से भारतीय भाषाओं को केंद्र्र में रखने की बात न केवल सही थी, बल्कि एक समर्थ व नए भारत के निर्माण के लिए यह जरूरी भी था। मगर आज भाषा का सवाल राष्ट्रीय या स्थानीय स्तर का नहीं रह गया है।
विगत चालीस-पचास वर्षों में देश में एक ऐसा मध्यवर्ग उभरा है, जिसके लिए शिक्षा और भाषा एकदम बदले हुए अर्थों में सामने आई हैं। कौन नहीं जानता कि औपचारिक शिक्षा केंद्रों में कक्षा नामक संस्था लगभग खत्म हो गई है। आज हालत यह है कि धन देकर जिस श्रेणी में जो भी डिगरी चाहिए, वह उपलब्ध है। (यहां मैं दूरस्थ शिक्षा की बात नहीं कह रहा) ऐसे लोगों को पैसा खर्च करके नौकरी भी मिल जा रही है। जब से आरक्षित पदों को अनिवार्य रूप से भरने के सरकारी आदेश हुए हैं, प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक जैसे शिक्षक पहुंच रहे हैं, उनके द्वारा तैयार पीढ़ी के बारे में सोचकर ही डर लगता है।
यह भी एक अनर्गल मिथक है कि हिंदी जानने वाला व्यक्ति दिमागी तौर पर कमजोर ही होता है। यह वैसे ही है, जैसे हिंदी क्षेत्रों में कभी यह धारणा थी कि औरतें घरेलू कामों में दक्ष होती हैं, पर बाहरी दुनिया के दांव-पेच उनके वश की बात नहीं। ऐसी धारणा से आदमी में एक असुरक्षा बोध पैदा होता है और वह मुख्यधारा के समाज में खुद को अकेला पाता है। नतीजतन उसकी रही-सही क्षमता भी खत्म हो जाती है। ठीक यही बात हमारी भाषा और शिक्षा नीति के बारे में भी कही जा सकती है। मातृभाषा में ही आदमी खुद को बेहतर ढंग से अभिव्यक्त कर सकता है, लेकिन हिंदी का उपयोग तो तब होगा, जब उसका मानक रूप मौजूद होगा।
व्यावसायिक और औपचारिक शिक्षा के बीच जबरदस्त खाई पैदा हो गई है। यह अनायास नहीं है कि प्रशानिक सेवाओं में चुनकर आनेवालों में भी अधिकतर व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त हैं। इससे दोहरा नुकसान हो रहा है। एक ओर अच्छे डॉक्टरों, तकनीकी विशेषज्ञों का अकाल पड़ता जा रहा है, दूसरी ओर बड़ी संख्या में ऐसे विशेषज्ञ विदेश भाग रहे हैं। औपचारिक शिक्षा संस्थानों से जो पौध निकल रही है, वह जिला पंचायतों, विधानसभाओं, संसद आदि के लिए अपना भाग्य आजमा रही है। ऐसे में एक सामान्य पढ़े-लिखे आदमी के लिए जगह कहां है? इसलिए आम आदमी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यूपीएससी का माध्यम हिंदी है, अंगरेजी है या कोई और भाषा।
इसका यह मतलब कतई नहीं कि सब कुछ अस्त-व्यस्त हो चुका है। जैसे आज भी मुट्ठी भर समर्पित शिक्षकों के कारण लोगों के सपने बचे हुए हैं, वैसे ही मुट्ठी भर बेहतर प्रशासकों के कारण भारत पूरी दुनिया को आकर्षित कर रहा है। जाहिर है कि वे हमेशा मुट्ठी भर ही नहीं रहेंगे। हमें उन पर भरोसा करना चाहिए।

Monday, March 7, 2011

कैसे बढ़ें हिंदी के दाम


भाषा की कीमत के असली सवाल भाषा द्वारा पूंजी निर्माण में सहायक होने से जुड़े हैं। यही भाषा की कीमत की शर्त है। भाषाओं के जीवन- मरण के सवाल भी इस बात से जुड़े हैं कि वे भाषाएं पूंजी के संदर्भ में कितनी प्रोडक्टिव हैं?क्या प्रोड्यूस करती हैं?क्या ब्रांड बनाती हैं? भाषा चिंतन के सवाल अक्सर भाषा की ‘कीमत’ के विचार से बेगाने रहते हैं। जब-जब बजट आता है ये सवाल पैदा होते हैं और मर जाते हैं। हिंदी बड़ी पूंजी की भाषा नहीं है। वह अल्प पूंजी की भाषा है। छोटे ब्रांड की भाषा है। इसलिए पिछड़ी हुई है। अंग्रेजी औरंिहंदी का यह फर्क इन भाषाओं के भीतर बैठे उपभोक्ता की हैसियत को बताता है। खरीदने वाले की हैसियत कमजोर है तो उसकी भाषा कमजोर रहेगी। पूंजीवाद भाषा की कीमत इसी तरह तय करता है। फिलहाल इससे कोई मुक्ति नहीं है
हिंदी की कीमत क्या है? हिंदी का स्टॉक मारकेट क्या है? हिंदी भाषा का शेयर मारकेट कितना है? ये सारे सवाल भाषा की इकनोमिक्स के हैं। ज़टिल हैं। अंतरानुशासनिक हैं। हिंदी भाषा को लेकर ऐसे सवाल अब उठाए जाने चाहिए। पता लगाया जाना चाहिए कि पचास-साठ करोड़ की आबादी की भाषा की अपनी ‘कीमत’ क्या है? वैल्यू क्या है? यह बात कोई पक्का वित्त विशेषज्ञ ही बता सकता है कि भाषा की कीमत किस तरह लगाई जाए?शायद उसके लिए भी भाषा की कीमत तय कर पाना आसान न हो! हमारे संज्ञान में ऐसी किताब नहीं है जिसमें किसी भाषा की आर्थिकी पर किसी विशेषज्ञ न कभी बात की हो। विज्ञ जन हमारी अल्प जानकारी को बढ़ा सकते हैं। हम आभारी होंगे। यह सवाल तब महसूस हुए जब बजट आया और कुछ बिजनैस चैनलों पर बजट चरचा हुई। प्रोफिट से लेकर ब्लूमबर्ग चैनल पर अंग्रेजी में विशेषज्ञों की चरचाएं अंग्रेजी में आती रहीं। बजट कहां कितना नफा-नुकसान करेगा? इसका आकलन बारीकी से होता रहा। बजट की भाषा विशेषज्ञों के लिए होती है लेकिन असलियत यह है कि उसका असर सर्वसाधारण के जीवन पर ज्यादा होता है। अंग्रेजी में हर चैनल पर कारपोरेट की दुनिया खुश थी क्योंकि बजट शायद उसकी भाषा में उसे लाभ पहुंचाने वाला नजर आता था। अंग्रेजी कीमत अचानक बढ़ती लगी। लाभ-हानि की बड़ी बातें प्रथमतया अंग्रेजी में ही क्यों थीं? हमारे कारपोरेट दुनिया के लेग अंग्रेजी में इतने वाककुशल थे कि बजट चरचा के बीच अंग्रेजी में मजाक तक कर सकते थे। हिंदी में ऐसा क्यों नहीं था? बजट को आसान हिंदी में बताने की गहरी चिंता क्यों नहंीं थी? जो तुरंता समझ आया वह इस तरह से रहा। बड़े वित्त की भाषा और बड़े बिजनेस की भाषा अंग्रेजी है। उनकी रीति-नीति अंग्रेजी में चलती है। क़ारपोरेट के कामकाज की भाषा अंग्रेजी है। फिक्की या सीआईआई जैसी बिजनेस संस्थाओं के भीतर अंग्रेजी मानक भाषा है। हिंदी या मराठी या तमिल नहीं है। जब कभी हिंदी तमिल वित्त की चरचा करती है तब अंग्रेजी के साथ मिक्स हो जाती है। तभी बजट कुछ समझ आता है। हिंदी ‘बिजनेस-विश्व’ की भाषा नहंीं है। वह बाजार में खुाली हुई दुकान की भाषा है। उपभोग की भाषा है। उपभोक्ता की भाषा है। बांड प्रोडक्शन की नहीं। हिंग्रेजी इस आर्थिक भेद का परिणाम है। बजट के उपरले छोर पर अंग्रेजी है और निचले छोर पर हिंदी तथा अन्य भाषाएं हैं। जब भी ये दो छोर मिलते हैं हिंग्रेजी बनने लगती है। अंग्रेजी बड़ी विश्व की पूंजी और बड़े बाजार की भाषा है। उसका चलन वहां जरूरी-सा बन चला है लेकिन हिंदी स्थानीय है जैसी कि अन्य भाषाएं हैं। ग्लोबल की कीमत है क्योंकि स्टॉक मारकेट ग्लोबल मारकेट है जबकि उपभोग के अंतिम छोर पर उपभोक्ता को किसी बांड की कीमत भर समझने की अंग्रेजी आती है तो काम चल जाता है। जाहिर है कि बाजार में मुनाफा पैदा करने की क्षमता ही किसी भाषा की कीमत है। ताकत है। इस मानी में देशज भाषाओं की कीमत एक सी है। वे गरजमंद खरीदार की भाषाएं हैं। खरीदार की ताकत कम है। भले बाजार ग्राहक को भगवान माने। खरीदार ऐसा भगवान है जो बेचारा है जिसकी भाषा खरीदार की भाषा है। ब्रांड निर्माता या बड़े विक्रेता की भाषा नहीं है। अधिकतम वह छोटे दुकानदार की भाषा है। वह प्रोडक्शन की भाषा नहीं है। भारतीय कारपोरेट बिजनेस घराने हिंदी तथा देसी भाषा-भाषी परिवारों से आते हैं लेकिन कम्पनी की भाषा से लेकर कारपोरेट की भाषा अंग्रेजी ही रही है।ंिहंदी परिवारों से आने वाले बिजनेस घरानों ने पूंजी निर्माण किया है। देश के विकास में हिस्सेदारी की है लेकिन बिजनेस का अपना मिजाज ऐसा रहा है कि आजादी की लड़ाई के बाद उसे सिर्फ एक राष्ट्र के भीतर महदूद रहना सम्भव नहंीं है। क़ॉमर्स की,बिजनेस की भाषा आखिरकार ग्लोबल ही हो सकती है। यह यथार्थ है। अनेक बिजनेस घराने हिंदी भाषी परिवारों से आते हैं तो भी बिजनेस का अपना स्वभाव ऐसा है कि वह एक राष्ट्रीय या जातीय भाषा तक सीमित नहीं रह सकता। पूंजीवाद का अपना स्वभाव निरंतर फैलाव और ग्लोबलाइजेशन का है। ऐसा कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो में स्वयं कार्ल मार्क्‍स ने कहा है। ऐसे में भाषा की कीमत के असली सवाल भाषा द्वारा पूंजी निर्माण में सहायक होने से जुड़े हैं। यही भाषा की कीमत की शर्त है। भाषाओं के जीवन-मरण के सवाल भी इस बात से जुड़े हैं कि वे भाषाएं पूंजी के संदर्भ में कितनी प्रोडक्टिव हैं?क्या प्रोड्यूस करती हैं?क्या ब्रांड बनाती हैं? भाषा चिंतन के सवाल अक्सर भाषा की ‘कीमत’ के विचार से बेगाने रहते हैं। जब-जब बजट आता है ये सवाल पैदा होते हैं और मर जाते हैं। हिंदी बड़ी पूंजी की भाषा नहीं है। वह अल्प पूंजी की भाषा है। छोटे ब्रांड की भाषा है। इसलिए पिछड़ी हुई है। उदाहरणों से बात समझी जा सकती है। अंग्रेजी अखबारों में अक्सर पूरे फ्रंट पेज के विज्ञापन आते हैं कि जिनमें महंगी गाड़ी या महंगे फ्लैट बेचे जाते हैं जबकि हिंदी अखबारों के फ्रंट पेज पर किसी चप्पल के ही विज्ञापन आते हैं। अंग्रेजी औरंिहंदी का यह फर्क इन भाषाओं के भीतर बैठे उपभोक्ता की हैसियत को बताता है। खरीदने वाले की हैसियत कमजोर है तो उसकी भाषा कमजोर रहेगी। पूंजीवाद भाषा की कीमत इसी तरह तय करता है और फिलहाल इससे कोई मुक्ति नहीं है। इसलिए हिंदीभाषा को अपनी हीनता पर रोने की जगह अपनी कीमत बनाने और बढ़ाने की जुगत करनी चाहिए। अपनी कीमत मांगने की बात करना आना चाहिए। बजट प्रसारण का धन्यवाद कि उसने हिंदी को उसकी ‘कीमत’ से जोड़ दिया।