Sunday, January 30, 2011

अमेरिका में चमक रही हिंदी की बिंदी


अपनी हिंदी का डंका अमेरिका में भी खूब बज रहा है। वहां के छात्र न सिर्फ हिंदी सीख रहे हैं, बल्कि उनके लबों पर सदाबहार हिंदी गीत भी तैर रहे हैं। इसका श्रेय जाता है लर्न हिंदी एंड हिंदी सांग नामक पुस्तक को। साहित्यकार डॉ. अंजना संधीर ने इस पुस्तक को लिखा है। अमेरिका की प्रमुख कंपनी न्यूयार्क लाइफ इंश्योरेंस ने इसकी 50 हजार प्रतियां अपने देश के छात्रों में नि:शुल्क बंटवाई हैं। लर्न हिंदी एंड हिंदी सांग पुस्तक अन्य किताबों से हटकर बेहद रोचक शैली में लिखी गई है। इसमें हिंदी की बारहखड़ी का अंग्रेजी उच्चारण तो है ही, साथ में सदाबहार हिंदी गीतों का अंग्रेजी रूपांतरण भी है। यहां तक कि गीत के हर बोल का अंग्रेजी अर्थ भी दिया गया है। 176 पृष्ठ की इस किताब में भारत में प्रचलित आम शब्दों की अंग्रेजी खास तौर पर दी गई है। दून भ्रमण पर आई डॉ. संधीर ने दैनिक जागरण से विशेष बातचीत में बताया कि वह इस किताब से अमेरिकी छात्रों को हिंदी सिखा रही हैं। उनके मुताबिक यूएस में हिंदी का प्रभुत्व लगातार बढ़ रहा है। हिंदी ग्लोबल भाषा के रूप में तेजी से अपनी पहचान बना रही है। भारतीय मूल की लेखिका संधीर पिछले 15 सालों से अमेरिका में हैं और वहां हिंदी के प्रचार-प्रसार की दिशा में कार्य कर रही हैं। उन्होंने बताया कि पुस्तक को न्यूयार्क लाइफ इंश्योरेंस के पदाधिकारियों ने काफी पसंद किया है।



Wednesday, January 26, 2011

हमारी बोलियां सात समंदर पार


आपके पास अपने दादा-परदादा की तस्वीरें तो घर में होंगी। लेकिन उनकी बोली और लहजे का शायद ही कोई रिकॉर्ड मौजूद हो। ऐसे में यह पता लगाना बेहद मुश्किल है कि पिछली सदी में हमारे पुरखों की जुबान का अंदाज क्या था? हालांकि अब कंप्यूटर पर एक माउस क्लिक की धीमी आवाज यह सुना सकेगी कि सौ बरस पहले उत्तरप्रदेश के बस्ती में सरवरी भोजपुरी की शैली कैसी थी या महाराष्ट्र में नागपुरी मराठी का मिजाज कैसा था। सात समंदर पार अमेरिका के शिकागो विश्वविद्यालय ने अंग्रेजी राज के दौरान कराए गए भारत के एकमात्र भाषाई सर्वेक्षण (लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया) को ऑनलाइन बनाने का बीड़ा उठाया है। अमेरिकी शिक्षा विभाग की मदद से चल रही परियोजना में 1903 से 1929 के बीच भारत की भाषाई विविधता की नब्ज टटोलने के लिए हुए सर्वे की 242 रिकॉर्डिग को उपलब्ध कराया है। डिजिटल साउथ एशिया लाइब्रेरी की वेबसाइट डीएसएएल. यूसीएचआईसीजीओ.ईडीयू पर बंगाली, मगधी, अवधी, छत्तीसगढ़ी हिंदी, बघेली, बुंदेली, कन्नौजी, सरवरी भोजपुरी, मेवाती और गुड़गांव के इलाके में बोली जाने वाली अहिरावती समेत 97 भाषाओं और बोलियों का एक सदी पुराना मिजाज जाना जा सकता है। सर्वे में ब्रिटिश भारत की कुल 179 भाषाओं, 544 बोलियों का लेखा-जोखा तैयार किया गया था। वहीं सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इस सर्वे की एक भी रिकॉर्डिग भारत में मौजूद नहीं है। शिकागो विश्वविद्यालय के साउथ एशिया लेंग्वेज एंड एरिया सेंटर के निदेशक जेम्स ने बताया कि भारतीय भाषाई सर्वेक्षण की रिकॉर्डिग को उन्होंने ब्रिटिश सरकार के संग्रहालय से हासिल किया। जल्द ही भारत में सीओएसएएस का एक केंद्र शुरू करने की तैयारी है और ब्रिटेन और भारत में मौजूद कुछ अन्य पुरानी रिकॉर्डिग्स को भी ऑनलाइन करने की योजना है। इस परियोजना के लिए अमेरिकी शिक्षा विभाग से हासिल मदद से सात हजार रिकॉर्डिग्स को ऑनलाइन बनाने के लिए काफी है। इसके लिए शिकागो विवि एचएमवी कंपनी प्रबंधन और भारत के संस्कृति मंत्रालय की भी मदद ले रहा है। 1857 की क्रांति के बाद शुरू हुए भारत के भाषाई सर्वेक्षण की कवायद को पूरा करने में दो दशक से ज्यादा का समय लगा और इसे सिविल सेवा अधिकारी जॉर्ज एब्राहम ग्रियरसन ने अंजाम दिया। सर्वे के बाद ग्रियरसन लंदन चले गए और एक सदी पहले हुए इस सर्वेक्षण की एक भी रिकॉर्डिग भारत में नहीं है। भारत में ऐसी कोई कोशिश नहीं हुई। तीन साल पहले मैसूर के सेंट्रल इंस्टीट्यूट फॉर इंडियन लैंग्वेजेज़ को सरकार ने देश के भाषाई सर्वेक्षण का काम सौंपा था। लेकिन यह परियोजना रद हो गई।



Sunday, January 23, 2011

विदेशों में हिंदी पढने की रुचि


हिंदी पर राजनीति कितनी जायज


यह देश का दुर्भाग्य ही है कि हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए जब भी केंद्र सरकार कोई योजना बनाती है अथवा कोई अन्य पहल करती है तो उसे राजनीतिक दांव-पेंच में उलझा दिया जाता है। पिछले दिनों विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा सत्र 2011-12 से देश के सभी 43 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले विदेशी छात्रों के लिए हिंदी के पठन-पाठन की व्यवस्था अनिवार्य कर दी गई है। इसके तहत अगले तीन साल में विदेशी छात्रों के लिए एक अनिवार्य विषय के रूप में हिंदी पढ़ाई जाएगाी। यूजीसी द्वारा देश के सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में विदेशी छात्रों के लिए स्नातक व परास्नातक पाठ्यक्रमों में हिंदी पढ़ना अनिवार्य बनाने की बात कही गई है। केंद्रीय राजभाषा क्रियान्वयन समिति ने इस प्रस्ताव का प्रारूप तैयार किया है। हालांकि हिंदी प्रेमियों के लिए यह गर्व की बात होनी चाहिए,। लेकिन ठीक इसके उलट गत दिनों केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल दक्षिणी राज्य तमिलनाडु में जवाहर नवोदय विद्यालय खोलने की मंशा दविण मुनेत्र कडगम यानी डीएमके प्रमुख एम.करुणानिधि के पुत्र और राज्य के वर्तमान उप मुख्यमंत्री स्टालिन से जाहिर की। इस बारे में स्टालिन ने मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल को साफ मना कर दिया कि तमिलनाडु राज्य में नवोदय विद्यालय नहींखोले जाएंगो, क्योंकि इसके जरिए दक्षिण के राज्यों में हिंदी भाषा का प्रचार व प्रसार किए जाने का कार्य किया जाएगा, जो उन्हें कतई स्वीकार नहीं हो सकता है। उनके मुताबिक केंद्र सरकार अंग्रेजी और तमिल माध्यमों में विद्यालय खोलना चाहे तो इसके लिए उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी। इस समय देश भर में 593 नवोदय विद्यालय हैं जिसमें तमिलनाडु ही भारत का एकमात्र प्रदेश है जहां एक भी नवोदय विद्यालय नहीं है। इसकी वजह है हिंदी, जबकि इस विद्यालय की शिक्षण प्रणाली त्रिभाषा फार्मूले पर आधारित है। इसके मुताबिक जो प्रदेश गैर हिंदी भाषी हैं, वहां स्थानीय भाषा में पढ़ाई की व्यवस्था की जानी है। हिंदी की अनिवार्यता पाठ्यक्रम में केवल इसलिए किया गया है ताकि अहिंदी भाषी छात्र भी इससे परिचित हो सकें। यहां सवाल यह है कि सरकार जिन नवोदय विद्यालयों को अखिल भारतीय शिक्षा योजना कह रही है, क्या हकीकत में उसे पूर्ण कहा जा सकता है? यह एक बड़ी विडंबना ही है कि संविधान में हिंदी के लिए काफी प्रावधान किए गए हैं, फिर भी ऐसा लगता है कि उसके क्रियान्वयन में ईमानदारी नहीं बरती गई है।। संविधान के इस प्रावधान का जितना उल्लंघन और निरादर हुआ है शायद ही किसी और का हुआ हो। दरअसल सरकार और हर पार्टी को वोट चाहिए और जब ये लोग वोट के नजरिए से देखते हैं तो प्रचार करते हैं कि अमुक प्रदेश के लोग हिंदी नहींचाहते। दरअसल यहां पूरा मामला वोट की राजनीति का ही है। वह भली प्रकार समझते हैं कि यदि हिंदी लागू किया गया तो उन्हें वोट नहींमिलेंगे। इस तरह एक तो वोट की राजनीति और ऊंचे जगहों पर बैठे राजनीतिक नेता अपना दबदबा बरकरार रखना चाहते हैं। यहां यह बात उल्लेखनीय है कि दक्षिण भारतीय नेता और संविधान सभा के सदस्य रामास्वामी आयंगर ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की पुरजोर वकालत की थी। हिंदी को लेकर जिस तरह का बवाल डीएमके और एआईडीएमके द्वारा मचाया जाता है असल में वह राजनीति से प्रेरित है, क्योंकि हिंदी विरोध का स्वर वहां की जनता से ज्यादा नेताओं में दिखता है। वहीं तमिलनाडु के छात्र जब दिल्ली सहित दूसरे बड़े शहरों में शिक्षा या रोजगाार के लिए जाते हैं तो वे बखूबी हिंदी बोलते देखे जा सकते हैं। नई दिल्ली स्थित जेएनयू परिसर में भारत के प्रतिष्ठित पत्रकारिता संस्थान में जिस वक्त मैं पढ़ता था वहां कई दक्षिण भारतीय मेरे मित्र थे। जिनसे मैं हिंदी में बात करता था और वह भी मुझसे हिंदी में बात करते थे। उनकी जुबान से कभी भी मैने हिंदी विरोध की बातें नहीं सुनी। गौरतलब है कि कोठारी शिक्षा आयोग ने 1964-66 की अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की थी कि भारत में सौहार्द और सामाजिक सामंजस्य स्थापित करने के लिए जरूरी है कि सभी बच्चों के लिए समान गुणवत्ता वाली स्कूल प्रणाली स्थापित की जाए। भारत की पहली शिक्षा नीति 1968 में, दूसरी 1986 और तीसरी 1992 में पेश हुई। तीनों ही शिक्षा नीतियों ने आयोग की सिफारिशों को स्वीकार किया। हिंदी का विरोध सबसे पहले दक्षिण भारत में शुरू हुआ। वास्तव में यह विरोध 1937 में उस समय शुरू हुआ जब उस वक्त के मद्रास में हिंदी की शिक्षा को अनिवार्य किया गया। इस विरोध आंदोलन का नेतृत्व जस्टिस पार्टी ने किया था। परिणामस्वरूप 1940 में ब्रिटिश सरकार ने यह प्रस्ताव वापस ले लिया और हिंदी की अनिवार्यता खत्म कर दी गई। आजादी के बाद भी गैर हिंदी राज्यों मे हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने को लेकर मतभेद था और वे अंगे्रजी में ही सरकारी कामकाज को जारी रखना चाहते थे। इसके बाद 1965 में जब संविधान लागू हुए 15 वर्ष हो गए तो हिंदी को एकमात्र आधिकारिक भाषा होना था, लेकिन ठीक उसी दिन 26 जनवरी, 1965 को हिंदी विरोध आंदोलन की गति और तेज हो गई। मदुरै में दंगा-फसाद शुरू हो गया और काफी जानें गई। लिहाजा तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने आश्वासन दिया की गैर हिंदी राज्य जब तक चाहें हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी को भी इस्तेमाल कर सकते हैं। 1986 में जब राजीव गांधी ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अंतर्गात नवोदय विद्यालय योजना लागू की तो एक बार फिर तमिलनाडु मे डीएमके ने यह कहकर इसका विरोध किया कि इससे हिंदी शिक्षा अनिवार्य हो जाएगाी। 13 नवंबर, 1986 को विधानसभा में एक प्रस्ताव पास किया गया जिसमें अंग्रेजी को संघ का आधिकारिक भाषा बनाने की मांग की गाई। 17 नवंबर, 1986 को डीएमके की अगुवाई में इस आंदोलन ने जोर पकड़ा। आखिरकार राजीव गांधी को संसद में आश्वासन देना पड़ा कि तमिलनाडु में हिंदी थोपी नहीं जाएगी। दक्षिण भारत के अलावा वर्तमान महाराष्ट्र में हिंदी का एक पार्टी के द्वारा विरोध जगा है। यह सही है कि हर एक को अपनी भाषा से लगााव होता है और यह उस राज्य की वहां के रहने वालों की एक पहचान होती है, लेकिन हमारी पहली पहचान हमारी भारतीयता है। पहले हम हिंदुस्तानी हैं, हिंदी हैं फिर कोई और। यदि किसी भाषा का विरोध करना ही है तो हमें अंग्रेजी का करना चाहिए न की हिंदी का। एक तरफ सरकार हिंदी को बढ़ावा देने के मकसद से दूसरे देशों के छात्रों को हिंदी पढ़ाना चाहती है वहीं दूसरी तरफ तमिलनाडु जैसे राज्य में नवोदय विद्यालय न खुल पाना एक विरोधाभास और हास्यास्पद घटना है। अगर सरकार वाकई हिंदी के लिए कुछ करना चाहती है तो वह किश्तों में प्रयास करना बंद करे और एक ठोस निर्णय लेते हुए नवोदय विद्यालय को संपूर्ण भारत की शिक्षा में शामिल करने की बाधाएं दूर करनी चाहिए। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)



Sunday, January 16, 2011

भारत से जुड़ाव के लिए हिंदी सीख रहे विदेशी

भारत से जुड़ने के लिए बहुत से विदेशी इन दिनों हिंदी सीख रहे हैं। उनका मानना है कि इस भाषा का ज्ञान होने पर उन्हें भारतीय लोगों के साथ घुल मिल पाने में आसानी होगी। वैश्विक कंपनियों के लिए भारत के एक महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में उभरने के साथ ही विदेशियों में हिंदी के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है। विदेशियों को हिंदी सिखाने वाले एक कोचिंग संस्थान के प्रमुख चंद्र भूषण पांडेय का कहना है कि जो विदेशी भारत में बसना चाहते हैं या जो यहां अपना व्यवसाय स्थापित करना चाहते हैं, वे अधिक अच्छे परिणामों के लिए हिंदी सीखने की आवश्यकता को महसूस करते हैं। हालांकि अंग्रेजी भारत में अब भी व्यावसायिक भाषा है, लेकिन हिंदी का ज्ञान सांस्कृतिक बारीकी को समझने में मदद करता है। हर महीने करीब 40 विदेशियों को हिंदी सिखाने वाले पांडेय का कहना है, पिछले आठ सालों में हिंदी बोलने की मांग 50 प्रतिशत तक बढ़ गई है। हिंदी बोलने और समझने की क्षमता भारतीय संस्कृति और इतिहास को समझने के अवसर बढ़ाती है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत में अपने कार्यालय खोल रही हैं और वे बेहतर व्यावसायिक परिणामों तथा अपने भारतीय ग्राहकों से जुड़ने के लिए अपने अधिकारियों को हिंदी सीखने के लिए प्रोत्साहित करती हैं।


Sunday, January 9, 2011

भारत में विदेशी छात्रों को पढ़नी होगी हिंदी

इलाहाबाद देश के किसी भी केंद्रीय विश्वविद्यालय में अध्ययन की चाहत रखने वाले विदेशी छात्रों को अब हिंदी का अध्ययन करना होगा। इसके लिए सभी विवि स्वयं पाठ्यक्रम बनाएंगे। छात्रों को अनिवार्य रूप से देश की मातृभाषा का अध्ययन कराना विवि की जिम्मेदारी होगी। कैंपस एवं इससे संबद्ध महाविद्यालयों में स्नातक एवं परास्नातक की पढ़ाई में हिंदी का अधिक प्रयोग हो, इसका भी ध्यान रखा जाएगा। गत माह विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) द्वारा गठित उच्चस्तरीय राजभाषा क्रियान्वयन समिति विश्वविद्यालयों में विदेशी छात्रों के हिंदी अध्ययन पर नजर रखेगी। समिति के सदस्य एवं अध्यक्ष प्रत्येक छह महीने पर विवि का भ्रमण कर हिंदी के विस्तार की जानकारी केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय को देंगे। इस निर्णय के घेरे में भारतीय मूल के विदेशी छात्र भी शामिल होंगे। केंद्रीय राजभाषा क्रियान्वयन समिति ने इस प्रस्ताव का प्रारूप तय कर लिया है। कुछ दिनों पहले इलाहाबाद आये समिति के अध्यक्ष आचार्य यार्लगड्डा लक्ष्मी प्रसाद ने स्पष्ट कर दिया कि केंद्रीय विवि में विदेशी छात्रों के लिए अनिवार्यत: हिंदी अध्ययन की व्यवस्था करना विवि की जिम्मेदारी है। इसके लिए सभी केंद्रीय विवि में हिंदी अधिकारी की नियुक्ति की जानी है। यूजीसी की योजना के अंतर्गत विवि में छह माह के भीतर राजभाषा विभाग की स्थापना होनी चाहिए। समिति विभिन्न विदेशी भाषाओं जैसे अरबी, स्पेनी, रूसी, जर्मन, फ्रांसीसी, हिब्रु एवं इतालवली आदि के अध्ययन को बढ़ावा देकर उनकेहिंदी अनुवाद की व्यवस्था को भी देखेगी। समिति अध्यक्ष ने विवि में हिंदी भाषा के विस्तार पर अनेक सुझाव भी दिये हैं। इसमें दिल्ली विवि की तरह 8-10 अन्य विश्वविद्यालयों में हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय प्रकोष्ठ स्थापित करना हैं। इसमें हिंदी भाषी राच्यों की हिंदी समितियों, अकादमियों के साथ समन्वयन की व्यवस्था करना है। समिति के सुझाव पर इलाहाबाद विश्र्वविद्यालय के कुलपति प्रो. एनआर फारुकी का कहना है समिति ने हिंदी के प्रसार के लिए जो भी सुझाव दिये हैं, उनपर अमल होगा। विदेशी छात्रों में हिंदी के प्रति लगाव पैदा हो, इसके लिए प्रयास किये जा रहे हैं। स्नातक एवं स्नातकोत्तर पढ़ाई का माध्यम हिंदी ही हो। इसके अतिरिक्त अगले छह माह में अधिकतर लिपिकीय कार्य हिंदी कराए जाने की व्यवस्था की जाएगी।

Saturday, January 8, 2011

नवोदय विद्यालय खुलें न खुलें तमिलनाडु को हिंदी मंजूर नहीं

तमिलनाडु की करुणानिधि सरकार को सब कुछ मंजूर है, हिंदी में पढ़ाई नहीं। राज्य सरकार अपने इस रुख में कतई बदलाव को तैयार नहीं हैं, चाहे वहां जवाहर नवोदय विद्यालय खुलें या न खुलें। अलबत्ता वह नवोदय विद्यालयों में सिर्फ अंग्रेजी में पढ़ाई को राजी है, लेकिन केंद्र सरकार महज उसके लिए नवोदय विद्यालयों को खोलने के नियम-कायदों में कोई बदलाव नहीं करेगी। सूत्रों के मुताबिक मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने बीते दिनों राज्य में जवाहर नवोदय विद्यालयों को खोलने के मसले पर मुख्यमंत्री करुणानिधि के बेटे व राज्य के उप मुख्यमंत्री स्टालिन से मशविरा किया। साइंस कांग्रेस में भाग लेने चेन्नई गए सिब्बल ने उप मुख्यमंत्री को अपनी तरह के अलग इन आवासीय विद्यालयों की गुणवत्तापूर्ण पढ़ाई की अहमियत समझाने का प्रयास किया। बताते हैं कि उप मुख्यमंत्री ने साफ कहा कि वह उन स्कूलों में हिंदी भाषा में पढ़ाई कराने के पक्ष में कतई नहीं हैं। अलबत्ता सिर्फ अंग्रेजी में पढ़ाई कराने में उन्हें एतराज नहीं है। उप मुख्यमंत्री के इस रुख को देख सिब्बल ने भी तमिलनाडु में जवाहर नवोदय विद्यालयों को खोलने का विचार छोड़ दिया है। सूत्र बताते हैं कि मंत्रालय का नजरिया साफ है कि वह नवोदय विद्यालयों के लिए पहले से बने नियम-कायदों में कतई कोई बदलाव नहीं करेगा। गौरतलब है कि तमिलनाडु देश में इकलौता राज्य है, जहां नवोदय विद्यालय नहीं खुले हैं। अडं़गा हिंदी में पढ़ाई कराने को लेकर है। हालाकि सूत्र यह भी बताते हैं कि केंद्रीय विद्यालयों के मामले में राज्य सरकार का हिंदी को लेकर ऐसा अडि़यल रुख नहीं है।



Sunday, January 2, 2011

लिपि का लफड़ा

पिछले दिनों साहित्य अकादेमी में चीनी लेखकों का एक प्रतिनिधिमंडल आया। इसमें एक अति उत्साही सज्जन ने चीनी लेखकों के सामने एक सवाल दे मारा-आपकी भाषा की लिपि इतनी कठिन है फिर आप लोग देवनागरी को अपनी लिपि के रूप में स्वीकार क्यों नहीं कर लेते

चीनी ये सवाल सुनकर सन्न रह गए। और सिर्फ चीनी ही क्यों वहां मौजूद दूसरी भाषाओं सहित हिंदी के लेखक भी भौंचक रह गए कि कैसा बेतुका सवाल पूछा गया है। बात सिर्फ राजनयिक शिष्टता की नहीं थी। हालांकि उन सज्जन को इसका भी ध्यान रखना चाहिए था कि दूसरे देश के लेखकों से अपने देश में किस तरह का सवाल करें। मगर इसके अलावा दूसरी बात ये भी थी कि भाषा और लिपि के मामले को पूरी गंभीरता से समझे बिना कुछ कहना मसले को उलझाना भी है।
ऐसा नहीं है कि देवनागरी के कट्टर समर्थक ही इस तरह का हास्यास्पद प्रस्ताव देते हैं। देवनागरी के आलोचक भी इसी तरह बेतुका बोल या लिख देते हैं। कुछ दिन पहले कथाकार असगर वजाहत ने एक लेख लिखा था कि हिंदीवालों को रोमन लिपि स्वीकार कर लेना चाहिए। उनका तर्क ये था कि बॉलीवुड के हीरो-हीरोइन देवनागरी लिपि पढ़ नहीं पाते और शूटिंग के दौरान रोमन लिपि में हिंदी पढ़के अपने डॉयलाग बोलते हैं। सरल भाषा में कहें तो कैटरीना कैफ, करीना कपूर या दीपिका पादुकोण को देवनागरी पढ़ने में मुश्किल हो रही है, तो क्यों न इस लिपि को ही हटा दिया जाए। आखिर हिंदीवालों को अपनी फिल्मी हीरोइनों के लिए इतना त्याग तो करना ही चाहिए। जब कैटरीना सात समुंदर पार से आकर हिंदी फिल्मों में काम कर सकती हैं, तो हमें भी कुछ बदलना पड़ेगा, कुछ त्याग करना पड़ेगा। कैटरीना ने हिंदी फिल्मों के लिए इंग्लैंड छोड़ा तो हम उनके लिए देवनागरी छोड़ दें। ये कमाल का आइडिया दिया था असगर वजाहत ने। दोनों ही तरह के तर्क और प्रस्ताव अपरिपक्वता की निशानी हैं। पर क्या इस तरह की बातें करनेवाले ये समझ पाते हैं कि उनके इस तरह के बयान उनको कितना हास्यास्पद बना देते हैं। जिन सज्जन ने चीनियों को देवनागरी अपनाने की सलाह दी थी उनको संभवत: ये मालूम नहीं कि आज भारत समेत बाकी दुनिया में चीनी या मंदारिन के लिए क्रेज बढ़ रहा है। वो अपनी चित्रात्मक लिपि की वजह से एक मुश्किल भाषा है। पर मसला सिर्फ लिपि की वैज्ञानिकता का नहीं होता। बल्कि भाषा से जुड़े लाभ का भी होता है। आज भारत में चीनी सीखने-सिखाने की दुकानें खुल रही हैं। इसलिए उसे सीखने से नौकरी और व्यापार में लाभ है। लोग जानते हैं कि चीनी सीखने में बहुत मुश्किलें हैं पर सीख रहे हैं। फिर चीनी अपनी लिपि क्यों बदलें? दुनिया उनके पास आ रही है वे दुनिया के पास नहीं जा रहे हैं। चीनी अंग्रेजी सीख रहे हैं पर अमेरिकी भी चीनी सीख रहे हैं।
हिंदी भी अगर दूसरों के लिए जरूरत बनेगी तो लोग उसे सीखेंगे। तब सीखनेवाला ये नहीं कहेगा कि मेरे लिए आप हिंदी की लिपि बदल लें। कल अगर कई चीनी बॉलीवुड में काम करने आएं, तो उसके लिए असगर वजाहत हिंदी वालों को चीनी लिपि अपनाने की सलाह देंगे! कितनी बार किसी भाषा की लिपि बदली जाएगी? कैटरीना कैफ आखिर टूटी-फूटी हिंदी बोल ही रही हैं। श्रीलंका से आई हिंदी फिल्मों की हीरोइन जैक्लीन फर्नांडीस भी हिंदी बोलना सीख रही हैं। जरूरत पड़ने पर वे देवनागरी भी सीख लेंगी। जिस दिन हिंदी की फिल्में मुंबई के अलावा दिल्ली, लखनऊ या जयपुर में बनने लगेंगी उस दिन विदेशी, हिंदी हीरोइन ज्यादा तेजी से हिंदी और देवनागरी सीखेंगी। ग्लोबलाइजेशन का मतलब बाहरी शक्तियों के आगे झुकना नहीं, बल्कि अपनी ताकत को बढ़ाना भी है।
चीन ने यही किया है। ग्लोबलाइजेशन से आज अमेरिका डरा हुआ है चीन नहीं। आकस्मिक नहीं कि चीन के सामने अमेरिका की हवा सरकने लगी है। सोवियत संघ के विखराव के बाद अमेरिका और उसके चंगु-मंगुओं को लग रहा था कि दुनिया की चौधराहट अब उसके पास है। लेकिन चीन ने पूरी कहानी का प्लाट बदल दिया है। किस्से का सार ये है कि अपनी या दूसरों की लिपि को अवैज्ञानिक ठहराना और उसे बदलने की बात करना यथार्थ से कटे रहना है और अपनी कमजोरी को प्रदर्शित करना है। जो कमजोर होते हैं वे दूसरे को बदल नहीं पाते। और उनको बार-बार दूसरों के सामने झुकना और बदलना पड़ता है।