Wednesday, June 29, 2011

बदलते समाज में हिंदी का बदलना जरूरी


भाषा के क्षेत्र में आपने जितना काम किया है उस हिसाब से समुचित मान-सम्मान नहीं मिला। क्या कहेंगे?
काम करने वाले का काम है काम करना और मान-सम्मान करने वाले का काम है मान-सम्मान करना। उनके बारे में मियां गालिब के ही अल्फाज हैं-चाहिए अच्छों को जितना चाहिए, वे अगर चाहें तो फिर क्या चाहिए? इसका संदर्भ तो बिल्कुल दूसरा है पर सम्मान देने वालों पर भी चस्पा होता है। जब पंद्रह साल की उमर में बालश्रमिक के रूप में छापेखाने में दाखिल हुआ तभी से मैंने काम को ही आत्मसम्मान समझा है। कभी किसी से कोई गिला नहीं किया।
समांतर कोश, द पेंगुइन इंग्लिश-हिंदी, हिंदी-इंग्लिश थिसारस एंड डिक्शनरी और अब अरविंद लैक्सिकन। इसके लिए सरकार से अथवा किसी अन्य से मदद ली?
शुरू में वर्ष 1973-74 में कई जगह कोशिश की, लेकिन किसी-न-किसी बहाने टालमटोल वाला ही जवाब मिला। वैसे हिंदी के किसी काम के लिए कुछ मांगना सबसे बड़ी जलालत है। अगर कोई कुछ देता भी है तो पहले सारे काम का श्रेय लेना चाहता है। मदद के पीछे भागते-भागते न जाने कितना समय निकल जाता, इसलिए मैंने सोचा चलो समुद्र में कूद पड़ते हैं जो होगा देखा जाएगा। जो काम कोई नहीं कर सकी वह आपने कर दिखाया। कैसे संभव हुआ?
भारत सरकार ने कोश निर्माण के लिए कई संस्थाएं बनाई थीं। जहां तक मुझे पता है किसी के पास ऐसा सपना नहीं था और अगर जापान की तरह कोई संस्था इसमें लगती तो यह संभव था। 1997 में मुझे वहां की भाषा संस्था के निमंत्रण पर वैश्विक थिसारस की गोष्ठी में जाना पड़ा। उस संस्था ने 200 लोगों के स्टाफ के साथ बीस साल में जो थिसारस बनाया था वह समांतर कोश के सामने पिद्दी-सा था।
थिसारस की रचना प्रक्ति्रया क्या है और आप शब्दों को कैसे ढूंढ़ते हैं?
थिसारस को हम शब्दसूची भी कह सकते हैं। बस फर्क यह है कि इसमें शब्दों का संकलन संदर्भक्रम से किया जाता है। इसके लिए जब मैंने दो साल पहले सोचा था तो रोजेट के थिसारस को आधार बनाया। मुझे लगा कि उसका संदर्भक्रम तो बना बनाया है उसी के खांचे में हिंदी के शब्द डालने भर हैं। पर ऐसा संभव नहीं था। हमने हिंदी कोशों के अ से शब्द खोजने शुरू किए और उन्हें रोजेट के खांचों में डालना चाहा तो मालूम हुआ कि यह उसके जैसे उपयुक्त अर्थकोटियों में है ही नहीं। वे संदर्भ, वे भाव ही वहां नहीं थे। भारत के लिए वह मॉडल बेकार था। 20वीं सदी में उसके बृहद संस्करण बनने लगे। तब तक रोजेट का क्रम अधूरा मालूम पड़ने लगा था। रोजेट एक वैज्ञानिक थे और उनका वर्गीकरण विज्ञान पर आधारित था। पर मानव मन वैज्ञानिक वर्गीकरण थोड़े ही जानता है। हमारे लिए गेहूं का संबंध अनाजों से है जबकि विज्ञान में गेहूं एक घास है। इस कारण रोजेट थिसारस में गेहूं, केला और घास एक साथ हैं। इस कारण हमने छठी सदी के सुप्रसिद्ध अमर कोश को मॉडल बनाया, लेकिन यह और भी लचर विचार निकला। कहां छठी सदी का वर्णाश्रम से ग्रस्त समाज और कहां आज का आधुनिक भारत। दो साल में काम पूरा करने की सोची थी, लेकिन कामचलाऊ मॉडल की तलाश में ही चौदह साल निकल गए। फिर भी शब्दों का संकलन एक दिन के लिए भी मैंने नहीं रोका। हर विषय और उसके उपविषय के कार्ड एक स्वतंत्र ट्रे में रखते गए। ट्रे हमने अपनी जरूरत के हिसाब से बनवाई थीं और कार्ड भी विशेष रूप से डिजाइन किए थे। जब कभी संदर्भक्रम बदलना होता तो ट्रे का क्रम बदल देते।
थिसारस का विचार कब आया और यह विश्वास कैसे कि नौकरी तक छोड़ दी?
तब मेरी उम्र 22-23 साल थी। मैं सरिता पत्रिका में उप संपादक था। शाम के समय सांध्य कॉलेज में पढ़ रहा था। बीए में पहुंचा तो मालिक और संपादक विश्वनाथजी ने मेरी इंग्लिश के साथ-साथ विश्व साहित्य में रुचि देखी तो कैरेवान में उपसंपादक बना दिया। सबसे पहला काम था सरिता की हिंदी कहानियों का इंग्लिश अनुवाद। यहां इंग्लिश रचनाओं को पढ़ना, लेखकों से लिखवाना और छपने के लिए अंतिम रूप देना मेरा काम था, लेकिन मैं ठहरा नौसिखिया! बहुत से शब्द मैं जानता ही नहीं था। तभी किसी ने मुझे रोजेट थिसारस खरीदने को कहा। मैं उसका दीवाना हो गया। तभी मैं सोचने लगा कि ऐसी कोई किताब हिंदी में होनी चाहिए। 19वीं सदी के अ‌र्द्धदशक में हिंदी शब्दावली बनाने के ताबड़तोड़ प्रयास हो रहे थे तो लगा कि हिंदी का थिसारस कभी न कभी तो आएगा ही। बाद में मैं माधुरी पत्रिका का संपादक बना, लेकिन दस साल वहां रहकर ऊब चुका था। बार-बार सोचता कि क्या मैं इसीलिए पैदा हुआ हूं? क्या यही मेरी नियति है? और तब 26-27 दिसंबर की रात फिल्मी दुनिया की चकाचौंध भरी पार्टियों से परेशान, थका-हारा मैं देर रात तक सो नहीं पाया। अचानक किसी ने याद दिलाया कि बीस साल पहले जो तुम्हारी चाहत थी हिंदी थिसारस की वह अभी अधूरी है। तुझे जो तलाश है जीवन में कुछ करने की तो उस चाहत को पूरा कर। तब तक मेरे जीवन का कोई सुनिश्चित उद्देश्य नहीं था। अगली सुबह 27 दिसंबर, 1973 की सुबह मालाबार हिल पर सैर करते समय तय हो गया। कुसुम और मैंने मिलकर संकल्प लिया चाहे जो हो हम हिंदी को थिसारस देंगे।
परिवार से किस तरह की मदद मिली?
उस सुबह से ही मैं और कुसुम पति-पत्नी से बढ़कर सहकर्मी हो गए। बच्चे छोटे थे। सुमित 13 साल का था और मीता 8 की। हम लोग तैयारी में जुट गए। हर तरह के संदर्भ ग्रंथ खरीद। ेयह भी पता था कि नौकरी छोड़ने के बाद जेब हल्की होगी इसलिए बचत की दर भी बढ़ा दी। नासिक में गोदावरी स्नान के बाद बासे में हमने किताब का पहला कार्ड बनाया जिस पर हम चारों के दस्तखत हैं। बच्चे जैसे-जैसे बड़े होते गए हमारे काम के भागीदार बनते गए। सुमित ने कार्डो के कंप्यूटरीकरण का काम तो मीता ने इंग्लिश डाटा की आधारशिला तैयार की।
एक जीवंत समाज के लिए शब्दकोश की उपयोगिता किस तरह हो सकती है?
शब्द मानव की महानतम उपलब्धि हैं। शब्दों ने ही ज्ञान-विज्ञान को जन्म दिया। एक पीढ़ी से दूसरी तक और एक देश से दूसरे देश तक पहुंचाया। संप्रेषण और अभिव्यक्ति का माध्यम बना। यही कारण है कि भाषा के जन्म के साथ ही थिसारस, शब्द सूचियां और शब्दार्थ कोश बनने लगे। सबसे पहले सटीक थिसारस और शब्दकोश भारत में बने। कश्यप का निघंटु ऐसा ही कोश था जिसमें 1800 शब्दों की सूची है। तत्कालीन समाज ने उन्हें प्रजापति कहकर सम्मान दिया। महर्षि यास्क ने निघंटु की व्याख्या के रूप में संसार सबसे पहला शब्दार्थकोश और एनसाइक्लोपीडिया निरुक्त दिया। शब्दकोश शब्द को प्रामाणिक करते हैं ताकि गलतफहमी की गुंजाइश न रहे जबकि थिसारस हमें अपनी बात कहने के लिए सही शब्दावली देता है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, लेकिन दो अलग तरह की चीजें हैं।
वैश्वीकरण के दौर में हिंदी का भविष्य किस रूप में देखते हैं?
कुछ निराशावादी लोग हिंदी को एक मरती हुई भाषा बता रहे हैं। इंग्लिश के बढ़ते प्रचलन को देख कई बार उनकी बात सही भी लगती है, लेकिन मैं उनसे सहमत नहीं हूं। हां, बदलते समाज और बदलती तकनीक के साथ हिंदी का बदलना जरूरी है। यह हर भाषा पर लागू होती है। आज हिंदी वह नहीं है जो चौरासी वैष्णवन की वार्ता या दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता के जमाने में थी और 2050 में भी वह नहीं होगी जो आज है। वह हर जगह से शब्द लेगी, विचार लेगी। तब हिंदी संसार में शायद सबसे अधिक प्रचलित भाषाओं में बहुत ऊपर होगी। विश्व में कई भाषाएं मृतप्राय हो रही हैं।
क्या इन्हें बचाया जा सकता है?
जिन भाषाओं के बोलने वाले कम होते जा रहे हैं वे म्यूजियम पीस बनकर ही बची रह सकती हैं। यही बात शब्दों की भी है। मेरे बचपन के वे सब शब्द मर चुके हैं जो उस समय की चीजों के लिए इस्तेमाल होते थे अथवा रीति-रिवाजों के लिए प्रचलित थे और यह स्वाभाविक भी है।
क्या हिंदी-इंग्लिश थिसारस के अलावा अन्य कोई द्विभाषी कोश बनाने की भी योजना है?
हमारी योजनाएं बहुत बड़ी हैं। अरविंद लैक्सिकन से जो पैसा आएगा उसका एक बड़ा हिस्सा हमारे डाटा में नई भाषाएं जोड़ने में काम आएगा। तमिल और चीनी भाषाएं हमारी प्राथमिकता में हैं। (कोशकार 'अरविन्द कुमार' से अनुराग की बातचीत)

Wednesday, June 1, 2011

खतरे में है देश की 62 भाषाओं का अस्तित्व


कोया, कोरवा, कोंडा, आओ, बाल्टी, विष्णुपुरिया, खरिया, खासी और तमांग। इन शब्दों का मतलब और औचित्य समझने में आप उलझ गए होंगे। मगर ये शब्द ये वास्तव में समृद्ध भारतीय भाषाएं हैं जिनकी जड़ें हमारे देश के इतिहास, संस्कृति और सभ्यता से जुड़ी हैं। अपने अस्तित्व के लिए जूझती ऐसी 62 भाषाओं में से 20 तो बिल्कुल लुप्त होने के कगार पर पहुंच गई हैं। अंग्रेजी और दूसरी बड़ी भाषाओं के आतंक में गुम होती जा रही इन भाषाओं के बचने की एक क्षीण सी सही, लेकिन अब उम्मीद जागी है। योजना आयोग भारत भाषा विकास योजना नाम की नई स्कीम पर विचार कर रहा है। तो मानव संसाधन विकास मंत्रालय भी इस पर राज्यों के शिक्षा मंत्रियों के अलावा केंद्रीय शिक्षा सलाहकार परिषद की प्रस्तावित बैठक में इस पर चर्चा करने जा रहा है। असम, अरुणाचल, जम्मू-कश्मीर, उड़ीसा, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, झारखंड, मेघालय, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और त्रिपुरा जैसे दूसरे राज्यों में प्रचलित लगभग सौ भाषाओं पर संकट है। मूल वजह इन भाषाओं का संविधान की आठवीं अनुसूची से बाहर होना है। खास बात है कि देश के लगभग साढ़े तीन करोड़ लोग इन भाषाओं को पढ़ने-लिखने व बोलने वाले हैं। फिर भी केंद्र व राज्य सरकारें उनके अस्तित्व को लेकर बहुत फिक्रमंद नहीं हैं। संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) ने 8वीं अनुसूची के बाहर की इन सौ भाषाओं में से 62 के अस्तित्व को खतरे में माना है। यूनेस्को की सूची के मुताबिक अरुणाचल व असम में लगभग दो लाख लोग आदी भाषा बोलते हैं, फिर भी उसका अस्तित्व खतरे में है। त्रिपुरा व असम में विष्णुपुरिया, सिक्किम, जम्मू-कश्मीर और हिमाचल में भूटिया, उड़ीसा, झारखंड, पश्चिम बंगाल में भूमिजी, कर्नाटक की कूरगी, कोडागू, जम्मू-कश्मीर की बाल्टी, नगालैंड मेंलगभग डेढ़ लाख लोगों में प्रभाव रखने वाली आओ भाषा पर खत्म होने का खतरा है। पश्चिम बंगाल व झारखंड में कोडा व कोरा भाषा का प्रभाव 43 हजार लोगों पर है। महाराष्ट्र व आंध्र प्रदेश के सवा लोगों पर कोलामी भाषा का प्रभाव है। इस तरह यूनेस्को ने कुल 62 भारतीय भाषाओं के समाप्त होने की आशंका जताई। इनमें से 20 भाषाओं के संरक्षण व विकास के लिए अब तक न तो मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन आने वाले केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान (सीआइआइएल) ने कुछ किया और न ही उनके प्रभाव क्षेत्र वाली राज्य सरकारों ने। मगर अब केंद्र सरकार इस भाषाई विरासत को बचाने के लिए तत्पर हुई है.