Sunday, May 22, 2011

अंग्रेजी के जरिये अन्याय


लेखक सिविल सेवा परीक्षा के नए प्रारूप को गरीब व पिछड़े छात्रों के खिलाफ बता रहे हैं
इस वर्ष से सिविल सेवा परीक्षा के प्रारूप में बदलाव किया गया है। नए प्रारूप की घोषणा के समय ही हिंदी पट्टी के कुछ शिक्षाविदों व बुद्धिजीवियों ने इस पर सवाल उठाए थे, लेकिन उनकी आपत्तियों पर ध्यान नहीं दिया गया। पिछले दिनों बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने नए प्रारूप के सबसे विवादस्पद पहलू-प्रारंभिक परीक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता, पर सवाल उठाकर इस विवाद को फिर से जिंदा कर दिया है। पूरे विवाद को समझने से पहले इस परीक्षा के प्रारूप को समझ लेना उपयुक्त होगा। सिविल सेवा परीक्षा में तीन चरण होते हैं। पहले चरण की परीक्षा में अब तक दो प्रश्नपत्र होते थे। एक सामान्य ज्ञान और दूसरा ऐच्छिक विषय। ऐच्छिक विषयों की संख्या 23 थी, जिनमें भौतिकी से लेकर दर्शन, इतिहास या मनोविज्ञान आदि कोई भी विषय लेने की छूट थी। दूसरे चरण, जिसे मुख्य परीक्षा कहा जाता है, में सामान्य ज्ञान, निबंध, भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी के अनिवार्य पचरें के साथ-साथ दो ऐच्छिक विषय लेने पड़ते हैं। इसमें सफल विद्यार्थियों का साक्षात्कार होता है और फिर अंतिम परिणाम घोषित किया जाता है। विवाद पहले चरण को लेकर उठा है, जबकि समस्या तीनों ही चरणों में है। 2001 में वाईके अलघ कमेटी ने सिविल सेवा परीक्षा पर विचार किया था। इसकी रिपोर्ट में स्पष्ट कहा गया था कि विभिन्न ऐच्छिक विषयों को लेने से उम्मीदवारों का सही आकलन नहीं हो पाता। व्यावहारिक तौर पर देखें तो इन ऐच्छिक विषयों की प्रासंगिकता समझ से परे थी। भौतिकी, भूगर्भ विज्ञान, इतिहास या दर्शनशास्त्र के गहरे ज्ञान का अर्थ यह कतई नहीं कि व्यक्ति में एक श्रेष्ठ प्रशासकीय योग्यता भी मौजूद है। प्रारंभिक परीक्षा के नए प्रारूप में सबके लिए समान कुछ सामान्य विषय रखे गए हैं। इसमें उम्मीदवार की बौद्धिक क्षमता, किसी मुद्दे के विश्लेषण-विवेचन की योग्यता, समस्याओं का सही आकलन और समाधान करने का कौशल, अंकगणितीय योग्यता और निर्णय लेने की क्षमता के साथ-साथ अभिव्यक्ति कौशल आदि का परीक्षण होगा। यहां तक तो ठीक है, लेकिन अंग्रेजी को भी इसमें शामिल करना उचित नहीं है। यह सिर्फ उच्चवर्गीय कॉन्वेंट पृष्ठभूमि के विद्यार्थियों के ही हित में है। गांवों, कस्बों और छोटे शहरों के गरीब और पिछड़े लेकिन प्रतिभाशाली विद्यार्थियों की अंग्रेजी वैसी नहीं होगी जैसी कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़े उच्चवर्गीय छात्रों की होती है। यहां यह बता देना जरूरी है कि मुख्य परीक्षा में भी अंग्रेजी का परचा है लेकिन वहां इसे सिर्फ उत्तीर्ण करना जरूरी है और इसके नंबर जोड़े नहीं जाते हैं। परंतु नई प्रारंभिक परीक्षा में इसके अंक जोड़े जाएंगे। सिविल सेवा परीक्षा के प्रारूप में बदलाव सिर्फ प्रारंभिक परीक्षा को लेकर किया गया है। मुख्य परीक्षा को जस का तस छोड़ दिया गया है। जबकि इसमें भी गंभीर त्रुटियां हैं। यहां अन्य अनिवार्य पत्रों के साथ-साथ दो ऐच्छिक विषय लेने होते हैं और इनका भारांक भी ज्यादा होता है। कोई उम्मीदवार अनिवार्य सामान्य ज्ञान और निबंध आदि पचरें में अच्छा प्रदर्शन न करे, तो भी वह ऐच्छिक विषयों में अच्छे नंबर लाकर उत्तीर्ण हो सकता है। दूसरी समस्या यह भी है कि भौतिकी, गाणित, रसायन विज्ञान, संस्कृत, पाली भाषा, दर्शनशास्त्र या इतिहास का गहरा ज्ञान एक अच्छे प्रशासक होने की भी योग्यता है, यह बात समझ से परे है। अच्छा होता कि मुख्य परीक्षा में भी ऐच्छिक विषयों की जगह कुछ सामान्य विषयों जैसे कानून, लोक प्रशासन, पर्यावरण, अर्थशास्त्र, भारतीय समाजशास्त्र, प्रबंधन, मानवाधिकार, शिक्षा, सामाजिक मनोविज्ञान, कृषि आदि विषयों का प्रावधान होता, जो जनता और शासन-प्रशासन से सीधे जुड़े हैं। इससे स्केलिंग की समस्या से भी मुक्ति मिलेगी। परीक्षा का अंतिम चरण-साक्षात्कार भी दोषरहित नहीं है। अगर मुख्य परीक्षा अंग्रेजी माध्यम में दी गई हो तो इंटरव्यू भी अंगरेजी माध्यम में देना होगा। यह प्रावधान भी ग्रामीण, कस्बाई और आम पिछड़े विद्यार्थियों के विरोध में जान पड़ता है। किसी भाषा का लिखित ज्ञान और उसमे धाराप्रवाह बोलना एवं सहज अभिव्यक्ति दो बिलकुल अलग-अलग चीजें हैं। उपरोक्त पृष्ठभूमि से आए विद्यार्थी लिखित परीक्षा में अंग्रेजी माध्यम से अच्छा भी कर लें, लेकिन इंटरव्यू में धाराप्रवाह अभिव्यक्ति नहीं होने से वे कान्वेंट के विद्यार्थियों से पिछड़ जाते हैं। यहां बताना जरूरी है कि ये विद्यार्थी लिखित परीक्षा में अंग्रेजी माध्यम मजबूरी में लेते हैं क्योंकि अधिकांश पाठ्य सामग्री अंग्रेजी में ही उपलब्ध होती है। जबकि हिंदी और भारतीय भाषाओं के माध्यम से मुख्य परीक्षा पास करने वाले विद्यार्थियों को उस भाषा या अंग्रेजी दोनों में ही इंटरव्यू देने का विकल्प है। इस संदर्भ में मुंबई हाईकोर्ट में मुकदमा भी दायर किया गया है। उम्मीद है कि यूपीएससी अपने कार्यकलाप, कार्यशैली और रुख में उपरोक्त सुझावों के प्रति एक लोकतांत्रिक रवैया अख्तियार करेगी। इसके लिए शासक वर्ग को पाखंड का चोला उतारना होगा। (लेखक दिल्ली विवि में एसोसिएट प्रोफेसर हैं )
   

Sunday, May 1, 2011

हिंदी में ज्ञानोदय हुआ ही नहीं


लम्बा अरसा हुआ दिल्ली में पाकिस्तान के मशहूर शायर अहमद फराज को सुनने का मौका मिला था। मुझे कविताओं की याद नहीं रहतीं लेकिन फराज ने शंकर शाद मुशायरे में जो नज्म सुनाई थी, उसके एक मिसरे का सार मुझे याद था- मेरी कलम तो एक अदालत है। हिंदी के अधिकांश, बड़े बुद्धिजीवी या साहित्य विचारक उर्दू कविता को शराब और इश्क की कविता मानते रहे हैं। हिंदी रचनाकार साहित्यिक गोष्ठियों में बोलते वक्त सबसे ज्यादा उद्धरण उर्दू की शायरी से ही देते हैं। फिर भी वे उर्दू को कभी स्वीकार नहीं करते। उन्हें पता नहीं है कि उर्दू ने किस तरह अपनी शायरी को अदालत में या फैज की तरह एक तलवार में या मेरी मित्र फहमिदा रियाज की तरह तेजाब में तब्दील किया है। हैरानी होती है कि जहां फैज को चार साल जेल की कोठरी में तन्हाई झेलनी पड़ी। फराज और फहमिदा को देश छोड़ना पड़ा, हिंदी का कवि उपनिषद कथाएं लिख कर कितने सुकून की जिंदगी बिताता है और जानकी यात्राएं करके रामरथयात्रियों को कितना खुश करता है। हिंदी में मुक्तिबोध से लेकर केदारनाथ अग्रवाल, विष्णु खरे और मंगलेश डबराल तक बड़े जोशोखरोश के साथ व्यवस्था विरोधी रचनाएं लिखते रहे हैं लेकिन ऐसी कि जिन व्यवस्था का ये विरोध करते हैं, वही उनको अच्छे इनामोइकराम से नवाजती रहती है। जो इश्क और हाला पर नहीं व्यवस्था के विरोध पर दफ्ती की तलवारें भांजते हैं, उनका वास्तविक चरित्र हैरान करता है। ऐसे ही एक तथाकथित विद्रोही कवि मित्र एक व्यावसायिक प्रतिष्ठान की मासिक पत्रिका के संपादक हुए तो उन्होंने लिखने के लिए निमंत्रित किया। लिखा कुछ नहीं जा सका क्योंकि उनकी शर्त थी कि अयोध्या, राम और हिन्दुत्व के विरुद्ध कुछ न लिखा जाए। हिंदी लेखन में यह सुविधाजीवी व्यवस्था विरोध कहां से आया? कैसे यह हुआ कि तलवार चमकाओ लेकिन दफ्ती की। उन्हें यह देखना चाहिए कि जिन दिनों प्रयोगवादी और नई कविता के जुलूस हिंदी में निकल रहे थे, उन दिनों फैज रावलपिंडी विद्रोह के मामले में जेल में थे। जब हिंदी में कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम की मलाई खाई जा रही थी उन्हीं दिनों फैज जेल से बाहर आए थे। वे दुबारा 1958 में सुरक्षा कानून में गिरफ्तार हुए थे। तब हिंदी में बहुत सुख-चैन के दिन थे। दिनकरउर्वशी लिख रहे थे,धर्मवीर भारती 'कनुप्रिया'। एक और लेखक कठोपनिषद् पर खंड काव्य लिख रहे थे। यह स्थिति हिंदी में कैसे और कहां से आई? पश्चिम में चार सदी पहले जो इन्लाइटेनमेंट आया था और जिसमें पश्चिम के बौद्धिक जगत में तार्किक विज्ञानबोध को विचार के बुनियादी तत्व का स्थान पाया था उसके प्रति हिंदी में पिछली सदी के अंत में गहरा मोह पैदा हुआ। राम विलास शर्मा जैसे कुछ लोग इसी के शैदाई हो गए और उन्हें हिंदी में एक बड़ी प्रतिमा मिल गई- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र। यह दिलचस्प है कि इसी देश में जिस समय उर्दू में मीर और ग़ालिब हुए थे, हिंदी में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हुए थे, जो ज्यादा बड़ी कविताएं बर्तानिया के राजकुमार पर लिख रहे थे। तुलना कीजिए, एक तरफ ग़ालिब की शायरी और दूसरी तरफ भारतेन्दु कृष्ण चरित्र, प्रेम फुलवारी या फिर प्रिंस ऑफ वेल्स के बीमार होने पर कविताएं लिख रहे थे-जिनकी माता सकल प्रजा गण की जीवन प्राण /तिनहि निरोगी की जिए यह विनवत भगवान। जिस हिंदी कवि के लिए सबसे बड़ा इन्लाइटेनमेंट बर्तानवी राजकुमार के स्वस्थ होने में हो, हिंदी का वही चरित्र हिंदी कविता की दुनिया में आज भी हावी है। हिंदी के विद्रोही कवि त्रिलोचन अपनी कविता में हिंदू मिथक महत्त्वपूर्ण मानते हैं। राम विलास शर्मा तो ऋग्वेद और रामचरित मानस के लगभग उपासक ही थे। रोचक तथ्य तो यह है कि ऋग्वेद मूल पढ़ने के बजाय उन्होंने सिर्फ सातवलेकर को ही पढ़ा था। हैरानी होती है कि कितनी बड़ी तादाद में किताबें हिंदू मिथकों पर छपती हैं। दक्षिणोश्वर का परमहंस, कामदेव के पत्र शिव के नाम, सुमित्रानंदन, द्रोण की आत्मकथा, द्रौपदी की आत्मकथा, कृष्ण की आत्मकथा और शिवपुत्री नर्मदा जैसी किताबें सिर्फ उन मिथकों पर देखी जा सकती हैं, जो त्रिलोचन को भी खासे ही प्रिय थे। सच यह है कि वामपंथ के बावजूद हिंदी में इन्लाइटेनमेंट कभी आया ही नहीं क्योंकि हिंदी का बुनियादी चरित्र ही इन्लाइटेनमेंट विरोधी है जबकि उर्दू के साथ ऐसा नहीं है। यही वजह है कि उर्दू के प्रति हिंदी में इतनी ज्यादा नफरत है, थोड़े से जनवादियों को छोड़ कर।