Wednesday, June 29, 2011

बदलते समाज में हिंदी का बदलना जरूरी


भाषा के क्षेत्र में आपने जितना काम किया है उस हिसाब से समुचित मान-सम्मान नहीं मिला। क्या कहेंगे?
काम करने वाले का काम है काम करना और मान-सम्मान करने वाले का काम है मान-सम्मान करना। उनके बारे में मियां गालिब के ही अल्फाज हैं-चाहिए अच्छों को जितना चाहिए, वे अगर चाहें तो फिर क्या चाहिए? इसका संदर्भ तो बिल्कुल दूसरा है पर सम्मान देने वालों पर भी चस्पा होता है। जब पंद्रह साल की उमर में बालश्रमिक के रूप में छापेखाने में दाखिल हुआ तभी से मैंने काम को ही आत्मसम्मान समझा है। कभी किसी से कोई गिला नहीं किया।
समांतर कोश, द पेंगुइन इंग्लिश-हिंदी, हिंदी-इंग्लिश थिसारस एंड डिक्शनरी और अब अरविंद लैक्सिकन। इसके लिए सरकार से अथवा किसी अन्य से मदद ली?
शुरू में वर्ष 1973-74 में कई जगह कोशिश की, लेकिन किसी-न-किसी बहाने टालमटोल वाला ही जवाब मिला। वैसे हिंदी के किसी काम के लिए कुछ मांगना सबसे बड़ी जलालत है। अगर कोई कुछ देता भी है तो पहले सारे काम का श्रेय लेना चाहता है। मदद के पीछे भागते-भागते न जाने कितना समय निकल जाता, इसलिए मैंने सोचा चलो समुद्र में कूद पड़ते हैं जो होगा देखा जाएगा। जो काम कोई नहीं कर सकी वह आपने कर दिखाया। कैसे संभव हुआ?
भारत सरकार ने कोश निर्माण के लिए कई संस्थाएं बनाई थीं। जहां तक मुझे पता है किसी के पास ऐसा सपना नहीं था और अगर जापान की तरह कोई संस्था इसमें लगती तो यह संभव था। 1997 में मुझे वहां की भाषा संस्था के निमंत्रण पर वैश्विक थिसारस की गोष्ठी में जाना पड़ा। उस संस्था ने 200 लोगों के स्टाफ के साथ बीस साल में जो थिसारस बनाया था वह समांतर कोश के सामने पिद्दी-सा था।
थिसारस की रचना प्रक्ति्रया क्या है और आप शब्दों को कैसे ढूंढ़ते हैं?
थिसारस को हम शब्दसूची भी कह सकते हैं। बस फर्क यह है कि इसमें शब्दों का संकलन संदर्भक्रम से किया जाता है। इसके लिए जब मैंने दो साल पहले सोचा था तो रोजेट के थिसारस को आधार बनाया। मुझे लगा कि उसका संदर्भक्रम तो बना बनाया है उसी के खांचे में हिंदी के शब्द डालने भर हैं। पर ऐसा संभव नहीं था। हमने हिंदी कोशों के अ से शब्द खोजने शुरू किए और उन्हें रोजेट के खांचों में डालना चाहा तो मालूम हुआ कि यह उसके जैसे उपयुक्त अर्थकोटियों में है ही नहीं। वे संदर्भ, वे भाव ही वहां नहीं थे। भारत के लिए वह मॉडल बेकार था। 20वीं सदी में उसके बृहद संस्करण बनने लगे। तब तक रोजेट का क्रम अधूरा मालूम पड़ने लगा था। रोजेट एक वैज्ञानिक थे और उनका वर्गीकरण विज्ञान पर आधारित था। पर मानव मन वैज्ञानिक वर्गीकरण थोड़े ही जानता है। हमारे लिए गेहूं का संबंध अनाजों से है जबकि विज्ञान में गेहूं एक घास है। इस कारण रोजेट थिसारस में गेहूं, केला और घास एक साथ हैं। इस कारण हमने छठी सदी के सुप्रसिद्ध अमर कोश को मॉडल बनाया, लेकिन यह और भी लचर विचार निकला। कहां छठी सदी का वर्णाश्रम से ग्रस्त समाज और कहां आज का आधुनिक भारत। दो साल में काम पूरा करने की सोची थी, लेकिन कामचलाऊ मॉडल की तलाश में ही चौदह साल निकल गए। फिर भी शब्दों का संकलन एक दिन के लिए भी मैंने नहीं रोका। हर विषय और उसके उपविषय के कार्ड एक स्वतंत्र ट्रे में रखते गए। ट्रे हमने अपनी जरूरत के हिसाब से बनवाई थीं और कार्ड भी विशेष रूप से डिजाइन किए थे। जब कभी संदर्भक्रम बदलना होता तो ट्रे का क्रम बदल देते।
थिसारस का विचार कब आया और यह विश्वास कैसे कि नौकरी तक छोड़ दी?
तब मेरी उम्र 22-23 साल थी। मैं सरिता पत्रिका में उप संपादक था। शाम के समय सांध्य कॉलेज में पढ़ रहा था। बीए में पहुंचा तो मालिक और संपादक विश्वनाथजी ने मेरी इंग्लिश के साथ-साथ विश्व साहित्य में रुचि देखी तो कैरेवान में उपसंपादक बना दिया। सबसे पहला काम था सरिता की हिंदी कहानियों का इंग्लिश अनुवाद। यहां इंग्लिश रचनाओं को पढ़ना, लेखकों से लिखवाना और छपने के लिए अंतिम रूप देना मेरा काम था, लेकिन मैं ठहरा नौसिखिया! बहुत से शब्द मैं जानता ही नहीं था। तभी किसी ने मुझे रोजेट थिसारस खरीदने को कहा। मैं उसका दीवाना हो गया। तभी मैं सोचने लगा कि ऐसी कोई किताब हिंदी में होनी चाहिए। 19वीं सदी के अ‌र्द्धदशक में हिंदी शब्दावली बनाने के ताबड़तोड़ प्रयास हो रहे थे तो लगा कि हिंदी का थिसारस कभी न कभी तो आएगा ही। बाद में मैं माधुरी पत्रिका का संपादक बना, लेकिन दस साल वहां रहकर ऊब चुका था। बार-बार सोचता कि क्या मैं इसीलिए पैदा हुआ हूं? क्या यही मेरी नियति है? और तब 26-27 दिसंबर की रात फिल्मी दुनिया की चकाचौंध भरी पार्टियों से परेशान, थका-हारा मैं देर रात तक सो नहीं पाया। अचानक किसी ने याद दिलाया कि बीस साल पहले जो तुम्हारी चाहत थी हिंदी थिसारस की वह अभी अधूरी है। तुझे जो तलाश है जीवन में कुछ करने की तो उस चाहत को पूरा कर। तब तक मेरे जीवन का कोई सुनिश्चित उद्देश्य नहीं था। अगली सुबह 27 दिसंबर, 1973 की सुबह मालाबार हिल पर सैर करते समय तय हो गया। कुसुम और मैंने मिलकर संकल्प लिया चाहे जो हो हम हिंदी को थिसारस देंगे।
परिवार से किस तरह की मदद मिली?
उस सुबह से ही मैं और कुसुम पति-पत्नी से बढ़कर सहकर्मी हो गए। बच्चे छोटे थे। सुमित 13 साल का था और मीता 8 की। हम लोग तैयारी में जुट गए। हर तरह के संदर्भ ग्रंथ खरीद। ेयह भी पता था कि नौकरी छोड़ने के बाद जेब हल्की होगी इसलिए बचत की दर भी बढ़ा दी। नासिक में गोदावरी स्नान के बाद बासे में हमने किताब का पहला कार्ड बनाया जिस पर हम चारों के दस्तखत हैं। बच्चे जैसे-जैसे बड़े होते गए हमारे काम के भागीदार बनते गए। सुमित ने कार्डो के कंप्यूटरीकरण का काम तो मीता ने इंग्लिश डाटा की आधारशिला तैयार की।
एक जीवंत समाज के लिए शब्दकोश की उपयोगिता किस तरह हो सकती है?
शब्द मानव की महानतम उपलब्धि हैं। शब्दों ने ही ज्ञान-विज्ञान को जन्म दिया। एक पीढ़ी से दूसरी तक और एक देश से दूसरे देश तक पहुंचाया। संप्रेषण और अभिव्यक्ति का माध्यम बना। यही कारण है कि भाषा के जन्म के साथ ही थिसारस, शब्द सूचियां और शब्दार्थ कोश बनने लगे। सबसे पहले सटीक थिसारस और शब्दकोश भारत में बने। कश्यप का निघंटु ऐसा ही कोश था जिसमें 1800 शब्दों की सूची है। तत्कालीन समाज ने उन्हें प्रजापति कहकर सम्मान दिया। महर्षि यास्क ने निघंटु की व्याख्या के रूप में संसार सबसे पहला शब्दार्थकोश और एनसाइक्लोपीडिया निरुक्त दिया। शब्दकोश शब्द को प्रामाणिक करते हैं ताकि गलतफहमी की गुंजाइश न रहे जबकि थिसारस हमें अपनी बात कहने के लिए सही शब्दावली देता है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, लेकिन दो अलग तरह की चीजें हैं।
वैश्वीकरण के दौर में हिंदी का भविष्य किस रूप में देखते हैं?
कुछ निराशावादी लोग हिंदी को एक मरती हुई भाषा बता रहे हैं। इंग्लिश के बढ़ते प्रचलन को देख कई बार उनकी बात सही भी लगती है, लेकिन मैं उनसे सहमत नहीं हूं। हां, बदलते समाज और बदलती तकनीक के साथ हिंदी का बदलना जरूरी है। यह हर भाषा पर लागू होती है। आज हिंदी वह नहीं है जो चौरासी वैष्णवन की वार्ता या दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता के जमाने में थी और 2050 में भी वह नहीं होगी जो आज है। वह हर जगह से शब्द लेगी, विचार लेगी। तब हिंदी संसार में शायद सबसे अधिक प्रचलित भाषाओं में बहुत ऊपर होगी। विश्व में कई भाषाएं मृतप्राय हो रही हैं।
क्या इन्हें बचाया जा सकता है?
जिन भाषाओं के बोलने वाले कम होते जा रहे हैं वे म्यूजियम पीस बनकर ही बची रह सकती हैं। यही बात शब्दों की भी है। मेरे बचपन के वे सब शब्द मर चुके हैं जो उस समय की चीजों के लिए इस्तेमाल होते थे अथवा रीति-रिवाजों के लिए प्रचलित थे और यह स्वाभाविक भी है।
क्या हिंदी-इंग्लिश थिसारस के अलावा अन्य कोई द्विभाषी कोश बनाने की भी योजना है?
हमारी योजनाएं बहुत बड़ी हैं। अरविंद लैक्सिकन से जो पैसा आएगा उसका एक बड़ा हिस्सा हमारे डाटा में नई भाषाएं जोड़ने में काम आएगा। तमिल और चीनी भाषाएं हमारी प्राथमिकता में हैं। (कोशकार 'अरविन्द कुमार' से अनुराग की बातचीत)

Wednesday, June 1, 2011

खतरे में है देश की 62 भाषाओं का अस्तित्व


कोया, कोरवा, कोंडा, आओ, बाल्टी, विष्णुपुरिया, खरिया, खासी और तमांग। इन शब्दों का मतलब और औचित्य समझने में आप उलझ गए होंगे। मगर ये शब्द ये वास्तव में समृद्ध भारतीय भाषाएं हैं जिनकी जड़ें हमारे देश के इतिहास, संस्कृति और सभ्यता से जुड़ी हैं। अपने अस्तित्व के लिए जूझती ऐसी 62 भाषाओं में से 20 तो बिल्कुल लुप्त होने के कगार पर पहुंच गई हैं। अंग्रेजी और दूसरी बड़ी भाषाओं के आतंक में गुम होती जा रही इन भाषाओं के बचने की एक क्षीण सी सही, लेकिन अब उम्मीद जागी है। योजना आयोग भारत भाषा विकास योजना नाम की नई स्कीम पर विचार कर रहा है। तो मानव संसाधन विकास मंत्रालय भी इस पर राज्यों के शिक्षा मंत्रियों के अलावा केंद्रीय शिक्षा सलाहकार परिषद की प्रस्तावित बैठक में इस पर चर्चा करने जा रहा है। असम, अरुणाचल, जम्मू-कश्मीर, उड़ीसा, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, झारखंड, मेघालय, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और त्रिपुरा जैसे दूसरे राज्यों में प्रचलित लगभग सौ भाषाओं पर संकट है। मूल वजह इन भाषाओं का संविधान की आठवीं अनुसूची से बाहर होना है। खास बात है कि देश के लगभग साढ़े तीन करोड़ लोग इन भाषाओं को पढ़ने-लिखने व बोलने वाले हैं। फिर भी केंद्र व राज्य सरकारें उनके अस्तित्व को लेकर बहुत फिक्रमंद नहीं हैं। संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) ने 8वीं अनुसूची के बाहर की इन सौ भाषाओं में से 62 के अस्तित्व को खतरे में माना है। यूनेस्को की सूची के मुताबिक अरुणाचल व असम में लगभग दो लाख लोग आदी भाषा बोलते हैं, फिर भी उसका अस्तित्व खतरे में है। त्रिपुरा व असम में विष्णुपुरिया, सिक्किम, जम्मू-कश्मीर और हिमाचल में भूटिया, उड़ीसा, झारखंड, पश्चिम बंगाल में भूमिजी, कर्नाटक की कूरगी, कोडागू, जम्मू-कश्मीर की बाल्टी, नगालैंड मेंलगभग डेढ़ लाख लोगों में प्रभाव रखने वाली आओ भाषा पर खत्म होने का खतरा है। पश्चिम बंगाल व झारखंड में कोडा व कोरा भाषा का प्रभाव 43 हजार लोगों पर है। महाराष्ट्र व आंध्र प्रदेश के सवा लोगों पर कोलामी भाषा का प्रभाव है। इस तरह यूनेस्को ने कुल 62 भारतीय भाषाओं के समाप्त होने की आशंका जताई। इनमें से 20 भाषाओं के संरक्षण व विकास के लिए अब तक न तो मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन आने वाले केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान (सीआइआइएल) ने कुछ किया और न ही उनके प्रभाव क्षेत्र वाली राज्य सरकारों ने। मगर अब केंद्र सरकार इस भाषाई विरासत को बचाने के लिए तत्पर हुई है.

Sunday, May 22, 2011

अंग्रेजी के जरिये अन्याय


लेखक सिविल सेवा परीक्षा के नए प्रारूप को गरीब व पिछड़े छात्रों के खिलाफ बता रहे हैं
इस वर्ष से सिविल सेवा परीक्षा के प्रारूप में बदलाव किया गया है। नए प्रारूप की घोषणा के समय ही हिंदी पट्टी के कुछ शिक्षाविदों व बुद्धिजीवियों ने इस पर सवाल उठाए थे, लेकिन उनकी आपत्तियों पर ध्यान नहीं दिया गया। पिछले दिनों बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने नए प्रारूप के सबसे विवादस्पद पहलू-प्रारंभिक परीक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता, पर सवाल उठाकर इस विवाद को फिर से जिंदा कर दिया है। पूरे विवाद को समझने से पहले इस परीक्षा के प्रारूप को समझ लेना उपयुक्त होगा। सिविल सेवा परीक्षा में तीन चरण होते हैं। पहले चरण की परीक्षा में अब तक दो प्रश्नपत्र होते थे। एक सामान्य ज्ञान और दूसरा ऐच्छिक विषय। ऐच्छिक विषयों की संख्या 23 थी, जिनमें भौतिकी से लेकर दर्शन, इतिहास या मनोविज्ञान आदि कोई भी विषय लेने की छूट थी। दूसरे चरण, जिसे मुख्य परीक्षा कहा जाता है, में सामान्य ज्ञान, निबंध, भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी के अनिवार्य पचरें के साथ-साथ दो ऐच्छिक विषय लेने पड़ते हैं। इसमें सफल विद्यार्थियों का साक्षात्कार होता है और फिर अंतिम परिणाम घोषित किया जाता है। विवाद पहले चरण को लेकर उठा है, जबकि समस्या तीनों ही चरणों में है। 2001 में वाईके अलघ कमेटी ने सिविल सेवा परीक्षा पर विचार किया था। इसकी रिपोर्ट में स्पष्ट कहा गया था कि विभिन्न ऐच्छिक विषयों को लेने से उम्मीदवारों का सही आकलन नहीं हो पाता। व्यावहारिक तौर पर देखें तो इन ऐच्छिक विषयों की प्रासंगिकता समझ से परे थी। भौतिकी, भूगर्भ विज्ञान, इतिहास या दर्शनशास्त्र के गहरे ज्ञान का अर्थ यह कतई नहीं कि व्यक्ति में एक श्रेष्ठ प्रशासकीय योग्यता भी मौजूद है। प्रारंभिक परीक्षा के नए प्रारूप में सबके लिए समान कुछ सामान्य विषय रखे गए हैं। इसमें उम्मीदवार की बौद्धिक क्षमता, किसी मुद्दे के विश्लेषण-विवेचन की योग्यता, समस्याओं का सही आकलन और समाधान करने का कौशल, अंकगणितीय योग्यता और निर्णय लेने की क्षमता के साथ-साथ अभिव्यक्ति कौशल आदि का परीक्षण होगा। यहां तक तो ठीक है, लेकिन अंग्रेजी को भी इसमें शामिल करना उचित नहीं है। यह सिर्फ उच्चवर्गीय कॉन्वेंट पृष्ठभूमि के विद्यार्थियों के ही हित में है। गांवों, कस्बों और छोटे शहरों के गरीब और पिछड़े लेकिन प्रतिभाशाली विद्यार्थियों की अंग्रेजी वैसी नहीं होगी जैसी कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़े उच्चवर्गीय छात्रों की होती है। यहां यह बता देना जरूरी है कि मुख्य परीक्षा में भी अंग्रेजी का परचा है लेकिन वहां इसे सिर्फ उत्तीर्ण करना जरूरी है और इसके नंबर जोड़े नहीं जाते हैं। परंतु नई प्रारंभिक परीक्षा में इसके अंक जोड़े जाएंगे। सिविल सेवा परीक्षा के प्रारूप में बदलाव सिर्फ प्रारंभिक परीक्षा को लेकर किया गया है। मुख्य परीक्षा को जस का तस छोड़ दिया गया है। जबकि इसमें भी गंभीर त्रुटियां हैं। यहां अन्य अनिवार्य पत्रों के साथ-साथ दो ऐच्छिक विषय लेने होते हैं और इनका भारांक भी ज्यादा होता है। कोई उम्मीदवार अनिवार्य सामान्य ज्ञान और निबंध आदि पचरें में अच्छा प्रदर्शन न करे, तो भी वह ऐच्छिक विषयों में अच्छे नंबर लाकर उत्तीर्ण हो सकता है। दूसरी समस्या यह भी है कि भौतिकी, गाणित, रसायन विज्ञान, संस्कृत, पाली भाषा, दर्शनशास्त्र या इतिहास का गहरा ज्ञान एक अच्छे प्रशासक होने की भी योग्यता है, यह बात समझ से परे है। अच्छा होता कि मुख्य परीक्षा में भी ऐच्छिक विषयों की जगह कुछ सामान्य विषयों जैसे कानून, लोक प्रशासन, पर्यावरण, अर्थशास्त्र, भारतीय समाजशास्त्र, प्रबंधन, मानवाधिकार, शिक्षा, सामाजिक मनोविज्ञान, कृषि आदि विषयों का प्रावधान होता, जो जनता और शासन-प्रशासन से सीधे जुड़े हैं। इससे स्केलिंग की समस्या से भी मुक्ति मिलेगी। परीक्षा का अंतिम चरण-साक्षात्कार भी दोषरहित नहीं है। अगर मुख्य परीक्षा अंग्रेजी माध्यम में दी गई हो तो इंटरव्यू भी अंगरेजी माध्यम में देना होगा। यह प्रावधान भी ग्रामीण, कस्बाई और आम पिछड़े विद्यार्थियों के विरोध में जान पड़ता है। किसी भाषा का लिखित ज्ञान और उसमे धाराप्रवाह बोलना एवं सहज अभिव्यक्ति दो बिलकुल अलग-अलग चीजें हैं। उपरोक्त पृष्ठभूमि से आए विद्यार्थी लिखित परीक्षा में अंग्रेजी माध्यम से अच्छा भी कर लें, लेकिन इंटरव्यू में धाराप्रवाह अभिव्यक्ति नहीं होने से वे कान्वेंट के विद्यार्थियों से पिछड़ जाते हैं। यहां बताना जरूरी है कि ये विद्यार्थी लिखित परीक्षा में अंग्रेजी माध्यम मजबूरी में लेते हैं क्योंकि अधिकांश पाठ्य सामग्री अंग्रेजी में ही उपलब्ध होती है। जबकि हिंदी और भारतीय भाषाओं के माध्यम से मुख्य परीक्षा पास करने वाले विद्यार्थियों को उस भाषा या अंग्रेजी दोनों में ही इंटरव्यू देने का विकल्प है। इस संदर्भ में मुंबई हाईकोर्ट में मुकदमा भी दायर किया गया है। उम्मीद है कि यूपीएससी अपने कार्यकलाप, कार्यशैली और रुख में उपरोक्त सुझावों के प्रति एक लोकतांत्रिक रवैया अख्तियार करेगी। इसके लिए शासक वर्ग को पाखंड का चोला उतारना होगा। (लेखक दिल्ली विवि में एसोसिएट प्रोफेसर हैं )
   

Sunday, May 1, 2011

हिंदी में ज्ञानोदय हुआ ही नहीं


लम्बा अरसा हुआ दिल्ली में पाकिस्तान के मशहूर शायर अहमद फराज को सुनने का मौका मिला था। मुझे कविताओं की याद नहीं रहतीं लेकिन फराज ने शंकर शाद मुशायरे में जो नज्म सुनाई थी, उसके एक मिसरे का सार मुझे याद था- मेरी कलम तो एक अदालत है। हिंदी के अधिकांश, बड़े बुद्धिजीवी या साहित्य विचारक उर्दू कविता को शराब और इश्क की कविता मानते रहे हैं। हिंदी रचनाकार साहित्यिक गोष्ठियों में बोलते वक्त सबसे ज्यादा उद्धरण उर्दू की शायरी से ही देते हैं। फिर भी वे उर्दू को कभी स्वीकार नहीं करते। उन्हें पता नहीं है कि उर्दू ने किस तरह अपनी शायरी को अदालत में या फैज की तरह एक तलवार में या मेरी मित्र फहमिदा रियाज की तरह तेजाब में तब्दील किया है। हैरानी होती है कि जहां फैज को चार साल जेल की कोठरी में तन्हाई झेलनी पड़ी। फराज और फहमिदा को देश छोड़ना पड़ा, हिंदी का कवि उपनिषद कथाएं लिख कर कितने सुकून की जिंदगी बिताता है और जानकी यात्राएं करके रामरथयात्रियों को कितना खुश करता है। हिंदी में मुक्तिबोध से लेकर केदारनाथ अग्रवाल, विष्णु खरे और मंगलेश डबराल तक बड़े जोशोखरोश के साथ व्यवस्था विरोधी रचनाएं लिखते रहे हैं लेकिन ऐसी कि जिन व्यवस्था का ये विरोध करते हैं, वही उनको अच्छे इनामोइकराम से नवाजती रहती है। जो इश्क और हाला पर नहीं व्यवस्था के विरोध पर दफ्ती की तलवारें भांजते हैं, उनका वास्तविक चरित्र हैरान करता है। ऐसे ही एक तथाकथित विद्रोही कवि मित्र एक व्यावसायिक प्रतिष्ठान की मासिक पत्रिका के संपादक हुए तो उन्होंने लिखने के लिए निमंत्रित किया। लिखा कुछ नहीं जा सका क्योंकि उनकी शर्त थी कि अयोध्या, राम और हिन्दुत्व के विरुद्ध कुछ न लिखा जाए। हिंदी लेखन में यह सुविधाजीवी व्यवस्था विरोध कहां से आया? कैसे यह हुआ कि तलवार चमकाओ लेकिन दफ्ती की। उन्हें यह देखना चाहिए कि जिन दिनों प्रयोगवादी और नई कविता के जुलूस हिंदी में निकल रहे थे, उन दिनों फैज रावलपिंडी विद्रोह के मामले में जेल में थे। जब हिंदी में कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम की मलाई खाई जा रही थी उन्हीं दिनों फैज जेल से बाहर आए थे। वे दुबारा 1958 में सुरक्षा कानून में गिरफ्तार हुए थे। तब हिंदी में बहुत सुख-चैन के दिन थे। दिनकरउर्वशी लिख रहे थे,धर्मवीर भारती 'कनुप्रिया'। एक और लेखक कठोपनिषद् पर खंड काव्य लिख रहे थे। यह स्थिति हिंदी में कैसे और कहां से आई? पश्चिम में चार सदी पहले जो इन्लाइटेनमेंट आया था और जिसमें पश्चिम के बौद्धिक जगत में तार्किक विज्ञानबोध को विचार के बुनियादी तत्व का स्थान पाया था उसके प्रति हिंदी में पिछली सदी के अंत में गहरा मोह पैदा हुआ। राम विलास शर्मा जैसे कुछ लोग इसी के शैदाई हो गए और उन्हें हिंदी में एक बड़ी प्रतिमा मिल गई- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र। यह दिलचस्प है कि इसी देश में जिस समय उर्दू में मीर और ग़ालिब हुए थे, हिंदी में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हुए थे, जो ज्यादा बड़ी कविताएं बर्तानिया के राजकुमार पर लिख रहे थे। तुलना कीजिए, एक तरफ ग़ालिब की शायरी और दूसरी तरफ भारतेन्दु कृष्ण चरित्र, प्रेम फुलवारी या फिर प्रिंस ऑफ वेल्स के बीमार होने पर कविताएं लिख रहे थे-जिनकी माता सकल प्रजा गण की जीवन प्राण /तिनहि निरोगी की जिए यह विनवत भगवान। जिस हिंदी कवि के लिए सबसे बड़ा इन्लाइटेनमेंट बर्तानवी राजकुमार के स्वस्थ होने में हो, हिंदी का वही चरित्र हिंदी कविता की दुनिया में आज भी हावी है। हिंदी के विद्रोही कवि त्रिलोचन अपनी कविता में हिंदू मिथक महत्त्वपूर्ण मानते हैं। राम विलास शर्मा तो ऋग्वेद और रामचरित मानस के लगभग उपासक ही थे। रोचक तथ्य तो यह है कि ऋग्वेद मूल पढ़ने के बजाय उन्होंने सिर्फ सातवलेकर को ही पढ़ा था। हैरानी होती है कि कितनी बड़ी तादाद में किताबें हिंदू मिथकों पर छपती हैं। दक्षिणोश्वर का परमहंस, कामदेव के पत्र शिव के नाम, सुमित्रानंदन, द्रोण की आत्मकथा, द्रौपदी की आत्मकथा, कृष्ण की आत्मकथा और शिवपुत्री नर्मदा जैसी किताबें सिर्फ उन मिथकों पर देखी जा सकती हैं, जो त्रिलोचन को भी खासे ही प्रिय थे। सच यह है कि वामपंथ के बावजूद हिंदी में इन्लाइटेनमेंट कभी आया ही नहीं क्योंकि हिंदी का बुनियादी चरित्र ही इन्लाइटेनमेंट विरोधी है जबकि उर्दू के साथ ऐसा नहीं है। यही वजह है कि उर्दू के प्रति हिंदी में इतनी ज्यादा नफरत है, थोड़े से जनवादियों को छोड़ कर।