Tuesday, December 28, 2010

तेज होगी भोजपुरी सम्मान की लड़ाई

भोजपुरी गायक और अभिनेता मनोज तिवारी ने कहा है कि यदि भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने में देरी की गई तो वे सड़क पर उतर कर संघर्ष करेंगे। 20 करोड़ लोग भोजपुरी भाषा बोलते हैं, लेकिन सरकार उनकी उपेक्षा कर रही है। भोजपुरी समाज द्वारा यहां आयोजित भोजपुरिया शिखर सम्मेलन में तिवारी ने कहा कि आठवीं अनुसूची में कई ऐसी भाषाएं हैं, जिन्हें बोलने वाले महज 20 से 50 लाख लोग है पर मैं इनका विरोध नहीं करता, लेकिन यह कहां तक उचित है कि 20 करोड़ लोगों की भाषा को उपेक्षित रखा जाए। भोजपुरी की लड़ाई को अमलीजामा पहनाने के लिए आयोजित इस कार्यक्रम में सांसद शत्रुध्न सिन्हा भी मौजूद थे। सिन्हा ने कहा कि यदि 15वीं लोकसभा चलेगी तो भोजपुरी उसमें रहेगी। मैं आप लोगों से वादा करता हूं कि जब भी संसद का सत्र चलेगा भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल कराने के लिए मैं पटल पर जोरदार तरीके से मांग रखूंगा। साहित्यकार केदारनाथ सिंह ने कहा कि भोजपुरी हमारा घर है और हिंदी देश। न घर को छोड़ा जा सकता है और न देश को, इसे सरकार को समझना होगा। कार्यक्रम की अध्यक्षता भोजपुरी समाज के अध्यक्ष अजीत दुबे ने की। इस अवसर पर उन्होंने भोजपुरी के लिए प्रयासरत सभी लोगों का आभार व्यक्त किया।


Friday, December 24, 2010

हिंदी शब्दों का खूबसूरत लोकतंत्र

लोकतंत्र और लोक तथा जनतंत्र और जन के बहाने हम स्वातंत्र्योत्तर भारतीय जनता और उसकी आकांक्षाओं को मूर्त्त करने वाली भावनाओं से जुड़ना चाहते हैं जिसके लिए लोक और जन एवं जनादेश आदि बीज शब्द हैं। लोक देश के सांस्कृतिक और जातीय जीवन की आंतरिकता को समेटे भारतीय पहचान को परिभाषित करने वाला शब्द है। लोक की संकल्पना में सामूहिक सर्जनात्मकता निहित होती है। इसकी तुलना में जन व्यक्तिबोधक यानी थोड़ा-बहुत इंडिबिजुअलिस्टिक सेंस रखता है। लोक की अर्थ-व्याप्ति में जन और जन-परिवेश, वहां की प्रकृति, रीति-नीति, पर्व-त्योहार, मान्यताएं और विश्वास-सभी शामिल हैं। लोक का अर्थ जन से अधिक समावेशी है। यह बात लोकगीत, लोककला, लोकनृत्य, लोक परंपरा, लोककथा जैसे शब्दों से विशेषकर जाहिर होता है। जनऔर लोकइन शब्दों में से दूसरे के अंदर अर्थ का घनत्व ज्यादा है। लोकतंत्र को स्वीकार करने के पीछे यह धारणा काम करती है कि व्यक्ति की मनोरचना उसके विवेक और विचार के निर्माण में जटिल रूप से लोक की भूमिका होती है। आज के विश्व में लोकतांत्रिकता मानवीय मूल्य का द्योतक है। जो इन मूल्यों की अवहेलना करता है उसकी लोक प्रतिष्ठा की हानि होती है। अंग्रेजी शब्दों मैनडेट और वर्डिक्ट के लिए जनमत और लोकमत में से दोनों का प्रयोग किया जा सकता है। लोकमत अधिक भावपूर्ण है, जनमत में भावना का घनत्व कम है। जनमत तो विचार का नाम है। अंग्रेजी के एक और शब्द रेफरेंडम को जनमत संग्रह कहते हैं। जेनरल सेंटिमेंट को जनभावना कहते हैं। टेलिविजन और रेडियो जैसे साधनों को जन संचार के साधन कहते हैं। यह जन संचार मास कम्युनिकेशन का हिन्दी अनुवाद है। लोकसभा या विधानसभा के लिए होने वाले आम चुनाव (जेनरल एलेक्शन) में किसी राजनीतिक दल को प्राप्त जन- समर्थन (पब्लिक सपोर्ट) ही जनमत है। जनमत किसी दल के पक्ष में हो तो वह सत्तासीन हो जाता है और उसके पक्ष में न हो तो सत्ताच्युत हो जाता है। जनगीत, जनवादी आंदोलन, जन जागरण जैसे शब्द अत्यंत भावपूर्ण हैं और उनके अर्थ निश्चित हो चुके हैं। प्रयोग का धरातल भी शब्दार्थ को पुष्ट कर देता है। लोक परलोक, मृत्युलोक, स्वर्गलोक, इंद्रलोक, शिवलोक, विष्णुलोक, भावलोक जैसे शब्दों से जाहिर है कि भावात्मक प्रगाढ़ता लोक में उत्कर्ष पर है। संस्कृत की क्रिया-धातु लुच से लोक निष्पन्न हुआ है। मजेदार है कि इसी लुच से अंग्रेजी क्रिया लुकभी निकली हुई प्रतीत होती है। उसका लुक अच्छा है अर्थात वह जैसा दिखता है वह सम्मोहक है। लुक का यह अर्थ आलोक के निकट है। आज भी लुचपुचाती नजरेंहिंदी का मुहावरा है। जंगल और वृक्ष-लताओं को भेदकर सूर्य की प्रात: कालीन किरणों नदी की बहती जलधारा पर पड़ती थीं। ये किरणों परावर्तित होकर किनारे की बस्तियों पर पड़ती थीं। और वे आलोक में नहा जाती थीं। ये बातें आलोक और बस्तियों के जीवन को लोक कहने के अर्थ और औचित्य को स्पष्ट करने के लिए काफी हैं। लोक-जीवन इसी कारण एक अभिव्यक्ति है।
(लेखांश राजभाषा भारतीसे साभार)

हिंदी से हिकारत क्यों

हमारी महान मातृभाषा हिंदी हमारे अपने ही देश हिंदुस्तान में रोजगार के अवसरों में बाधक है। हमारे देश की सरकार का यह रुख अभी कुछ अरसा पहले ही सामने आया था। बोलने वालों की संख्या के हिसाब से दुनिया की दूसरे नंबर की भाषा हिंदी अगर अपने ही देश में रोजगार के अवसरों में बाधक बनी हुई है तो इसका कारण हमारी सोच है। हम अपनी भाषा को उचित स्थान नहीं देते हैं, बल्कि अंग्रेजी जैसी भाषा का प्रयोग करने में गर्व महसूस करते हैं। मेरे विचार से हमें अपना नजरिया बदलने की जरूरत है। हमें कार्यालयों में ज्यादा से ज्यादा हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देना चाहिए। कोरिया, जापान, चीन, तुर्की एवं अन्य यूरोपीय देशों की तरह हमें भी अपने देश की सर्वाधिक बोले जाने वाली जनभाषा हिंदी को कार्यालयी भाषा के रूप में स्थापित करना चाहिए और उसी स्थिति में अंग्रेजी प्रयोग करने की अनुमति होनी चाहिए, जबकि बैठक में कोई एक व्यक्ति ऐसा हो, जिसे हिंदी नहीं आती हो। चीन का उदाहरण लें तो वह बिना इंग्लिश को अपनाए हुए ही आर्थिक ताकत बना हुआ है और हम समझते हैं की इंग्लिश के बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम अपनी भाषा को छोड़कर दूसरी भाषाओं को अधिक महत्व देते हैं। अंग्रेजी जैसी भाषा को सीखना या प्रयोग करना गलत नहीं है, लेकिन अपनी भाषा की अनदेखी करना गलत ही नहीं, बल्कि देश से गद्दारी करने जैसा है। अपनी भाषा को छोड़कर प्रगति करने के सपने देखना बिलकुल ऐसा है, जैसे अपनी मां का हाथ छोड़ किसी दूसरी औरत का हाथ पकड़ कर चलना सीखने की कोशिश करना। हो तो सकता है कि हम चलना सीख जाएं, लेकिन जब गिरेंगे तो क्या मां के अलावा कोई और उसी तरह दिल में दर्द लेकर उठाने के लिए दौड़ेगी? हम दूसरा सहारा तो ढूंढ़ सकते हैं, लेकिन मां के जैसा प्रेम कहां से लाएंगे? पृथ्वी का कोई भी देश अपनी भाषा छोड़कर आगे बढ़ने के सपने नहीं देखता है। एक बात और, हिंदी किसी एक प्रांत, देश या समुदाय की जागीर नहीं है, यह तो उसकी है, जो इससे प्रेम करता है। भारत में तो अपने देश की संप्रभुता और एकता को सर्वाधिक महत्व देते हुए वार्तालाप करने में हिंदी को प्राथमिकता देनी चाहिए। कम से कम जहां तक हो सके, वहां तक प्रयास तो निश्चित रूप से करना चाहिए। उसके बाद क्षेत्रीय भाषा को भी अवश्य महत्व देना चाहिए। आज महान भाषा हिंदी रोजगार के अवसरों में बाधक केवल इसलिए है, क्योंकि हमें अपनी भाषा का महत्व ही नहीं मालूम है. 

Thursday, December 23, 2010

चीनी मीडिया नहीं करेगा चिंगलिश शब्दों का प्रयोग

 चीन के समाचार पत्र, वेबसाइट्स और चैनल अब विदेशी शब्दों-खासकरअंग्रेजी का प्रयोग अब नहीं करेंगे। सरकारी समाचार पत्र पीपल्स डेली के मुताबिक जनरल एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ प्रेस एंड पब्लिकेशन (जीएपीपी) ने यह आदेश जारी किया है। जीएपीपी का कहना है कि अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग की वजह से चीनी भाषा की शुद्धता प्रभावित हो रही है। इस वजह से स्वस्थ सांस्कृतिक वातावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। आदेश में कहा गया कि आर्थिक व सामाजिक विकास के साथ चीन में समाचार पत्रों, पत्रिकाओं और इंटरनेट सहित सभी प्रकार के प्रकाशनों में विदेशी भाषाओं का इस्तेमाल बढ़ रहा है. विदेशी भाषाओं के अनुवाद, अनुवाद के मूल सिद्धांतों और व्यवहारों के अनुरूप होने चाहिए. नियमों का उल्लंघन करने पर सजा का प्रावधान भी रखा गया है.