Wednesday, January 26, 2011

हमारी बोलियां सात समंदर पार


आपके पास अपने दादा-परदादा की तस्वीरें तो घर में होंगी। लेकिन उनकी बोली और लहजे का शायद ही कोई रिकॉर्ड मौजूद हो। ऐसे में यह पता लगाना बेहद मुश्किल है कि पिछली सदी में हमारे पुरखों की जुबान का अंदाज क्या था? हालांकि अब कंप्यूटर पर एक माउस क्लिक की धीमी आवाज यह सुना सकेगी कि सौ बरस पहले उत्तरप्रदेश के बस्ती में सरवरी भोजपुरी की शैली कैसी थी या महाराष्ट्र में नागपुरी मराठी का मिजाज कैसा था। सात समंदर पार अमेरिका के शिकागो विश्वविद्यालय ने अंग्रेजी राज के दौरान कराए गए भारत के एकमात्र भाषाई सर्वेक्षण (लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया) को ऑनलाइन बनाने का बीड़ा उठाया है। अमेरिकी शिक्षा विभाग की मदद से चल रही परियोजना में 1903 से 1929 के बीच भारत की भाषाई विविधता की नब्ज टटोलने के लिए हुए सर्वे की 242 रिकॉर्डिग को उपलब्ध कराया है। डिजिटल साउथ एशिया लाइब्रेरी की वेबसाइट डीएसएएल. यूसीएचआईसीजीओ.ईडीयू पर बंगाली, मगधी, अवधी, छत्तीसगढ़ी हिंदी, बघेली, बुंदेली, कन्नौजी, सरवरी भोजपुरी, मेवाती और गुड़गांव के इलाके में बोली जाने वाली अहिरावती समेत 97 भाषाओं और बोलियों का एक सदी पुराना मिजाज जाना जा सकता है। सर्वे में ब्रिटिश भारत की कुल 179 भाषाओं, 544 बोलियों का लेखा-जोखा तैयार किया गया था। वहीं सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इस सर्वे की एक भी रिकॉर्डिग भारत में मौजूद नहीं है। शिकागो विश्वविद्यालय के साउथ एशिया लेंग्वेज एंड एरिया सेंटर के निदेशक जेम्स ने बताया कि भारतीय भाषाई सर्वेक्षण की रिकॉर्डिग को उन्होंने ब्रिटिश सरकार के संग्रहालय से हासिल किया। जल्द ही भारत में सीओएसएएस का एक केंद्र शुरू करने की तैयारी है और ब्रिटेन और भारत में मौजूद कुछ अन्य पुरानी रिकॉर्डिग्स को भी ऑनलाइन करने की योजना है। इस परियोजना के लिए अमेरिकी शिक्षा विभाग से हासिल मदद से सात हजार रिकॉर्डिग्स को ऑनलाइन बनाने के लिए काफी है। इसके लिए शिकागो विवि एचएमवी कंपनी प्रबंधन और भारत के संस्कृति मंत्रालय की भी मदद ले रहा है। 1857 की क्रांति के बाद शुरू हुए भारत के भाषाई सर्वेक्षण की कवायद को पूरा करने में दो दशक से ज्यादा का समय लगा और इसे सिविल सेवा अधिकारी जॉर्ज एब्राहम ग्रियरसन ने अंजाम दिया। सर्वे के बाद ग्रियरसन लंदन चले गए और एक सदी पहले हुए इस सर्वेक्षण की एक भी रिकॉर्डिग भारत में नहीं है। भारत में ऐसी कोई कोशिश नहीं हुई। तीन साल पहले मैसूर के सेंट्रल इंस्टीट्यूट फॉर इंडियन लैंग्वेजेज़ को सरकार ने देश के भाषाई सर्वेक्षण का काम सौंपा था। लेकिन यह परियोजना रद हो गई।



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