Sunday, January 2, 2011

लिपि का लफड़ा

पिछले दिनों साहित्य अकादेमी में चीनी लेखकों का एक प्रतिनिधिमंडल आया। इसमें एक अति उत्साही सज्जन ने चीनी लेखकों के सामने एक सवाल दे मारा-आपकी भाषा की लिपि इतनी कठिन है फिर आप लोग देवनागरी को अपनी लिपि के रूप में स्वीकार क्यों नहीं कर लेते

चीनी ये सवाल सुनकर सन्न रह गए। और सिर्फ चीनी ही क्यों वहां मौजूद दूसरी भाषाओं सहित हिंदी के लेखक भी भौंचक रह गए कि कैसा बेतुका सवाल पूछा गया है। बात सिर्फ राजनयिक शिष्टता की नहीं थी। हालांकि उन सज्जन को इसका भी ध्यान रखना चाहिए था कि दूसरे देश के लेखकों से अपने देश में किस तरह का सवाल करें। मगर इसके अलावा दूसरी बात ये भी थी कि भाषा और लिपि के मामले को पूरी गंभीरता से समझे बिना कुछ कहना मसले को उलझाना भी है।
ऐसा नहीं है कि देवनागरी के कट्टर समर्थक ही इस तरह का हास्यास्पद प्रस्ताव देते हैं। देवनागरी के आलोचक भी इसी तरह बेतुका बोल या लिख देते हैं। कुछ दिन पहले कथाकार असगर वजाहत ने एक लेख लिखा था कि हिंदीवालों को रोमन लिपि स्वीकार कर लेना चाहिए। उनका तर्क ये था कि बॉलीवुड के हीरो-हीरोइन देवनागरी लिपि पढ़ नहीं पाते और शूटिंग के दौरान रोमन लिपि में हिंदी पढ़के अपने डॉयलाग बोलते हैं। सरल भाषा में कहें तो कैटरीना कैफ, करीना कपूर या दीपिका पादुकोण को देवनागरी पढ़ने में मुश्किल हो रही है, तो क्यों न इस लिपि को ही हटा दिया जाए। आखिर हिंदीवालों को अपनी फिल्मी हीरोइनों के लिए इतना त्याग तो करना ही चाहिए। जब कैटरीना सात समुंदर पार से आकर हिंदी फिल्मों में काम कर सकती हैं, तो हमें भी कुछ बदलना पड़ेगा, कुछ त्याग करना पड़ेगा। कैटरीना ने हिंदी फिल्मों के लिए इंग्लैंड छोड़ा तो हम उनके लिए देवनागरी छोड़ दें। ये कमाल का आइडिया दिया था असगर वजाहत ने। दोनों ही तरह के तर्क और प्रस्ताव अपरिपक्वता की निशानी हैं। पर क्या इस तरह की बातें करनेवाले ये समझ पाते हैं कि उनके इस तरह के बयान उनको कितना हास्यास्पद बना देते हैं। जिन सज्जन ने चीनियों को देवनागरी अपनाने की सलाह दी थी उनको संभवत: ये मालूम नहीं कि आज भारत समेत बाकी दुनिया में चीनी या मंदारिन के लिए क्रेज बढ़ रहा है। वो अपनी चित्रात्मक लिपि की वजह से एक मुश्किल भाषा है। पर मसला सिर्फ लिपि की वैज्ञानिकता का नहीं होता। बल्कि भाषा से जुड़े लाभ का भी होता है। आज भारत में चीनी सीखने-सिखाने की दुकानें खुल रही हैं। इसलिए उसे सीखने से नौकरी और व्यापार में लाभ है। लोग जानते हैं कि चीनी सीखने में बहुत मुश्किलें हैं पर सीख रहे हैं। फिर चीनी अपनी लिपि क्यों बदलें? दुनिया उनके पास आ रही है वे दुनिया के पास नहीं जा रहे हैं। चीनी अंग्रेजी सीख रहे हैं पर अमेरिकी भी चीनी सीख रहे हैं।
हिंदी भी अगर दूसरों के लिए जरूरत बनेगी तो लोग उसे सीखेंगे। तब सीखनेवाला ये नहीं कहेगा कि मेरे लिए आप हिंदी की लिपि बदल लें। कल अगर कई चीनी बॉलीवुड में काम करने आएं, तो उसके लिए असगर वजाहत हिंदी वालों को चीनी लिपि अपनाने की सलाह देंगे! कितनी बार किसी भाषा की लिपि बदली जाएगी? कैटरीना कैफ आखिर टूटी-फूटी हिंदी बोल ही रही हैं। श्रीलंका से आई हिंदी फिल्मों की हीरोइन जैक्लीन फर्नांडीस भी हिंदी बोलना सीख रही हैं। जरूरत पड़ने पर वे देवनागरी भी सीख लेंगी। जिस दिन हिंदी की फिल्में मुंबई के अलावा दिल्ली, लखनऊ या जयपुर में बनने लगेंगी उस दिन विदेशी, हिंदी हीरोइन ज्यादा तेजी से हिंदी और देवनागरी सीखेंगी। ग्लोबलाइजेशन का मतलब बाहरी शक्तियों के आगे झुकना नहीं, बल्कि अपनी ताकत को बढ़ाना भी है।
चीन ने यही किया है। ग्लोबलाइजेशन से आज अमेरिका डरा हुआ है चीन नहीं। आकस्मिक नहीं कि चीन के सामने अमेरिका की हवा सरकने लगी है। सोवियत संघ के विखराव के बाद अमेरिका और उसके चंगु-मंगुओं को लग रहा था कि दुनिया की चौधराहट अब उसके पास है। लेकिन चीन ने पूरी कहानी का प्लाट बदल दिया है। किस्से का सार ये है कि अपनी या दूसरों की लिपि को अवैज्ञानिक ठहराना और उसे बदलने की बात करना यथार्थ से कटे रहना है और अपनी कमजोरी को प्रदर्शित करना है। जो कमजोर होते हैं वे दूसरे को बदल नहीं पाते। और उनको बार-बार दूसरों के सामने झुकना और बदलना पड़ता है।

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