Monday, March 7, 2011

कैसे बढ़ें हिंदी के दाम


भाषा की कीमत के असली सवाल भाषा द्वारा पूंजी निर्माण में सहायक होने से जुड़े हैं। यही भाषा की कीमत की शर्त है। भाषाओं के जीवन- मरण के सवाल भी इस बात से जुड़े हैं कि वे भाषाएं पूंजी के संदर्भ में कितनी प्रोडक्टिव हैं?क्या प्रोड्यूस करती हैं?क्या ब्रांड बनाती हैं? भाषा चिंतन के सवाल अक्सर भाषा की ‘कीमत’ के विचार से बेगाने रहते हैं। जब-जब बजट आता है ये सवाल पैदा होते हैं और मर जाते हैं। हिंदी बड़ी पूंजी की भाषा नहीं है। वह अल्प पूंजी की भाषा है। छोटे ब्रांड की भाषा है। इसलिए पिछड़ी हुई है। अंग्रेजी औरंिहंदी का यह फर्क इन भाषाओं के भीतर बैठे उपभोक्ता की हैसियत को बताता है। खरीदने वाले की हैसियत कमजोर है तो उसकी भाषा कमजोर रहेगी। पूंजीवाद भाषा की कीमत इसी तरह तय करता है। फिलहाल इससे कोई मुक्ति नहीं है
हिंदी की कीमत क्या है? हिंदी का स्टॉक मारकेट क्या है? हिंदी भाषा का शेयर मारकेट कितना है? ये सारे सवाल भाषा की इकनोमिक्स के हैं। ज़टिल हैं। अंतरानुशासनिक हैं। हिंदी भाषा को लेकर ऐसे सवाल अब उठाए जाने चाहिए। पता लगाया जाना चाहिए कि पचास-साठ करोड़ की आबादी की भाषा की अपनी ‘कीमत’ क्या है? वैल्यू क्या है? यह बात कोई पक्का वित्त विशेषज्ञ ही बता सकता है कि भाषा की कीमत किस तरह लगाई जाए?शायद उसके लिए भी भाषा की कीमत तय कर पाना आसान न हो! हमारे संज्ञान में ऐसी किताब नहीं है जिसमें किसी भाषा की आर्थिकी पर किसी विशेषज्ञ न कभी बात की हो। विज्ञ जन हमारी अल्प जानकारी को बढ़ा सकते हैं। हम आभारी होंगे। यह सवाल तब महसूस हुए जब बजट आया और कुछ बिजनैस चैनलों पर बजट चरचा हुई। प्रोफिट से लेकर ब्लूमबर्ग चैनल पर अंग्रेजी में विशेषज्ञों की चरचाएं अंग्रेजी में आती रहीं। बजट कहां कितना नफा-नुकसान करेगा? इसका आकलन बारीकी से होता रहा। बजट की भाषा विशेषज्ञों के लिए होती है लेकिन असलियत यह है कि उसका असर सर्वसाधारण के जीवन पर ज्यादा होता है। अंग्रेजी में हर चैनल पर कारपोरेट की दुनिया खुश थी क्योंकि बजट शायद उसकी भाषा में उसे लाभ पहुंचाने वाला नजर आता था। अंग्रेजी कीमत अचानक बढ़ती लगी। लाभ-हानि की बड़ी बातें प्रथमतया अंग्रेजी में ही क्यों थीं? हमारे कारपोरेट दुनिया के लेग अंग्रेजी में इतने वाककुशल थे कि बजट चरचा के बीच अंग्रेजी में मजाक तक कर सकते थे। हिंदी में ऐसा क्यों नहीं था? बजट को आसान हिंदी में बताने की गहरी चिंता क्यों नहंीं थी? जो तुरंता समझ आया वह इस तरह से रहा। बड़े वित्त की भाषा और बड़े बिजनेस की भाषा अंग्रेजी है। उनकी रीति-नीति अंग्रेजी में चलती है। क़ारपोरेट के कामकाज की भाषा अंग्रेजी है। फिक्की या सीआईआई जैसी बिजनेस संस्थाओं के भीतर अंग्रेजी मानक भाषा है। हिंदी या मराठी या तमिल नहीं है। जब कभी हिंदी तमिल वित्त की चरचा करती है तब अंग्रेजी के साथ मिक्स हो जाती है। तभी बजट कुछ समझ आता है। हिंदी ‘बिजनेस-विश्व’ की भाषा नहंीं है। वह बाजार में खुाली हुई दुकान की भाषा है। उपभोग की भाषा है। उपभोक्ता की भाषा है। बांड प्रोडक्शन की नहीं। हिंग्रेजी इस आर्थिक भेद का परिणाम है। बजट के उपरले छोर पर अंग्रेजी है और निचले छोर पर हिंदी तथा अन्य भाषाएं हैं। जब भी ये दो छोर मिलते हैं हिंग्रेजी बनने लगती है। अंग्रेजी बड़ी विश्व की पूंजी और बड़े बाजार की भाषा है। उसका चलन वहां जरूरी-सा बन चला है लेकिन हिंदी स्थानीय है जैसी कि अन्य भाषाएं हैं। ग्लोबल की कीमत है क्योंकि स्टॉक मारकेट ग्लोबल मारकेट है जबकि उपभोग के अंतिम छोर पर उपभोक्ता को किसी बांड की कीमत भर समझने की अंग्रेजी आती है तो काम चल जाता है। जाहिर है कि बाजार में मुनाफा पैदा करने की क्षमता ही किसी भाषा की कीमत है। ताकत है। इस मानी में देशज भाषाओं की कीमत एक सी है। वे गरजमंद खरीदार की भाषाएं हैं। खरीदार की ताकत कम है। भले बाजार ग्राहक को भगवान माने। खरीदार ऐसा भगवान है जो बेचारा है जिसकी भाषा खरीदार की भाषा है। ब्रांड निर्माता या बड़े विक्रेता की भाषा नहीं है। अधिकतम वह छोटे दुकानदार की भाषा है। वह प्रोडक्शन की भाषा नहीं है। भारतीय कारपोरेट बिजनेस घराने हिंदी तथा देसी भाषा-भाषी परिवारों से आते हैं लेकिन कम्पनी की भाषा से लेकर कारपोरेट की भाषा अंग्रेजी ही रही है।ंिहंदी परिवारों से आने वाले बिजनेस घरानों ने पूंजी निर्माण किया है। देश के विकास में हिस्सेदारी की है लेकिन बिजनेस का अपना मिजाज ऐसा रहा है कि आजादी की लड़ाई के बाद उसे सिर्फ एक राष्ट्र के भीतर महदूद रहना सम्भव नहंीं है। क़ॉमर्स की,बिजनेस की भाषा आखिरकार ग्लोबल ही हो सकती है। यह यथार्थ है। अनेक बिजनेस घराने हिंदी भाषी परिवारों से आते हैं तो भी बिजनेस का अपना स्वभाव ऐसा है कि वह एक राष्ट्रीय या जातीय भाषा तक सीमित नहीं रह सकता। पूंजीवाद का अपना स्वभाव निरंतर फैलाव और ग्लोबलाइजेशन का है। ऐसा कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो में स्वयं कार्ल मार्क्‍स ने कहा है। ऐसे में भाषा की कीमत के असली सवाल भाषा द्वारा पूंजी निर्माण में सहायक होने से जुड़े हैं। यही भाषा की कीमत की शर्त है। भाषाओं के जीवन-मरण के सवाल भी इस बात से जुड़े हैं कि वे भाषाएं पूंजी के संदर्भ में कितनी प्रोडक्टिव हैं?क्या प्रोड्यूस करती हैं?क्या ब्रांड बनाती हैं? भाषा चिंतन के सवाल अक्सर भाषा की ‘कीमत’ के विचार से बेगाने रहते हैं। जब-जब बजट आता है ये सवाल पैदा होते हैं और मर जाते हैं। हिंदी बड़ी पूंजी की भाषा नहीं है। वह अल्प पूंजी की भाषा है। छोटे ब्रांड की भाषा है। इसलिए पिछड़ी हुई है। उदाहरणों से बात समझी जा सकती है। अंग्रेजी अखबारों में अक्सर पूरे फ्रंट पेज के विज्ञापन आते हैं कि जिनमें महंगी गाड़ी या महंगे फ्लैट बेचे जाते हैं जबकि हिंदी अखबारों के फ्रंट पेज पर किसी चप्पल के ही विज्ञापन आते हैं। अंग्रेजी औरंिहंदी का यह फर्क इन भाषाओं के भीतर बैठे उपभोक्ता की हैसियत को बताता है। खरीदने वाले की हैसियत कमजोर है तो उसकी भाषा कमजोर रहेगी। पूंजीवाद भाषा की कीमत इसी तरह तय करता है और फिलहाल इससे कोई मुक्ति नहीं है। इसलिए हिंदीभाषा को अपनी हीनता पर रोने की जगह अपनी कीमत बनाने और बढ़ाने की जुगत करनी चाहिए। अपनी कीमत मांगने की बात करना आना चाहिए। बजट प्रसारण का धन्यवाद कि उसने हिंदी को उसकी ‘कीमत’ से जोड़ दिया।

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