Monday, March 21, 2011

अंगरेजी के बावजूद


इस बार से संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) की आरंभिक परीक्षा में कुछ बदलाव किए गए हैं। इससे कई लोगों को लग रहा है कि अब उसमें ऐसे परीक्षार्थी नहीं सफल नहीं हो पाएंगे, जिनके पास अंगरेजी की पृष्ठभूमि नहीं है। अब यह परीक्षा पहले चरण में सीसैट’ (सिविल सर्विसेज एप्टीट्यूड टेस्ट) के रूप में संपन्न होगी। इसका उद्देश्य यह पता लगाना होगा कि आवेदक में प्रशासनिक निर्णय लेने की क्षमता है या नहीं। हालांकि इसमें उन सभी विषयों का समावेश होगा, जिनसे प्रतियोगी के रुझान और त्वरित निर्णय लेने की क्षमता का पता लग पाएगा। ऊपरी तौर पर यह निर्णय न तो गलत लगता है और न ही पूर्वाग्रह से ग्रस्त। मगर शंका व्यक्त की जा रही है कि जो लोग प्रिलिम में अपनी पसंद के एक विषय को चुनकर निकलते थे, अब अंगरेजी में होने वाले अभिक्षमता परीक्षण (सीसैट) के कारण उनके लिए दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो जाएंगे। उल्लेखनीय है कि पिछले कई वर्षों से यूपीएससी परीक्षाओं में भारतीय भाषाओं को माध्यम के रूप में ग्रहण करने वालों की संख्या न केवल बढ़ी है, बल्कि वे आईएएस, आईपीएस आदि बनने में भी सफल हुए हैं।
भाषा चूंकि भावनाओं की अभिव्यक्ति का एकमात्र साधन है, इसलिए इसके महत्व को नकारा नहीं जा सकता। भारतीय भाषाओं को वैकल्पिक माध्यम बनाने की बात सबसे पहले 1979 में कोठारी आयोग ने कही। उन दिनों के लिहाज से भारतीय भाषाओं को केंद्र्र में रखने की बात न केवल सही थी, बल्कि एक समर्थ व नए भारत के निर्माण के लिए यह जरूरी भी था। मगर आज भाषा का सवाल राष्ट्रीय या स्थानीय स्तर का नहीं रह गया है।
विगत चालीस-पचास वर्षों में देश में एक ऐसा मध्यवर्ग उभरा है, जिसके लिए शिक्षा और भाषा एकदम बदले हुए अर्थों में सामने आई हैं। कौन नहीं जानता कि औपचारिक शिक्षा केंद्रों में कक्षा नामक संस्था लगभग खत्म हो गई है। आज हालत यह है कि धन देकर जिस श्रेणी में जो भी डिगरी चाहिए, वह उपलब्ध है। (यहां मैं दूरस्थ शिक्षा की बात नहीं कह रहा) ऐसे लोगों को पैसा खर्च करके नौकरी भी मिल जा रही है। जब से आरक्षित पदों को अनिवार्य रूप से भरने के सरकारी आदेश हुए हैं, प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक जैसे शिक्षक पहुंच रहे हैं, उनके द्वारा तैयार पीढ़ी के बारे में सोचकर ही डर लगता है।
यह भी एक अनर्गल मिथक है कि हिंदी जानने वाला व्यक्ति दिमागी तौर पर कमजोर ही होता है। यह वैसे ही है, जैसे हिंदी क्षेत्रों में कभी यह धारणा थी कि औरतें घरेलू कामों में दक्ष होती हैं, पर बाहरी दुनिया के दांव-पेच उनके वश की बात नहीं। ऐसी धारणा से आदमी में एक असुरक्षा बोध पैदा होता है और वह मुख्यधारा के समाज में खुद को अकेला पाता है। नतीजतन उसकी रही-सही क्षमता भी खत्म हो जाती है। ठीक यही बात हमारी भाषा और शिक्षा नीति के बारे में भी कही जा सकती है। मातृभाषा में ही आदमी खुद को बेहतर ढंग से अभिव्यक्त कर सकता है, लेकिन हिंदी का उपयोग तो तब होगा, जब उसका मानक रूप मौजूद होगा।
व्यावसायिक और औपचारिक शिक्षा के बीच जबरदस्त खाई पैदा हो गई है। यह अनायास नहीं है कि प्रशानिक सेवाओं में चुनकर आनेवालों में भी अधिकतर व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त हैं। इससे दोहरा नुकसान हो रहा है। एक ओर अच्छे डॉक्टरों, तकनीकी विशेषज्ञों का अकाल पड़ता जा रहा है, दूसरी ओर बड़ी संख्या में ऐसे विशेषज्ञ विदेश भाग रहे हैं। औपचारिक शिक्षा संस्थानों से जो पौध निकल रही है, वह जिला पंचायतों, विधानसभाओं, संसद आदि के लिए अपना भाग्य आजमा रही है। ऐसे में एक सामान्य पढ़े-लिखे आदमी के लिए जगह कहां है? इसलिए आम आदमी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यूपीएससी का माध्यम हिंदी है, अंगरेजी है या कोई और भाषा।
इसका यह मतलब कतई नहीं कि सब कुछ अस्त-व्यस्त हो चुका है। जैसे आज भी मुट्ठी भर समर्पित शिक्षकों के कारण लोगों के सपने बचे हुए हैं, वैसे ही मुट्ठी भर बेहतर प्रशासकों के कारण भारत पूरी दुनिया को आकर्षित कर रहा है। जाहिर है कि वे हमेशा मुट्ठी भर ही नहीं रहेंगे। हमें उन पर भरोसा करना चाहिए।

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