Sunday, May 1, 2011

हिंदी में ज्ञानोदय हुआ ही नहीं


लम्बा अरसा हुआ दिल्ली में पाकिस्तान के मशहूर शायर अहमद फराज को सुनने का मौका मिला था। मुझे कविताओं की याद नहीं रहतीं लेकिन फराज ने शंकर शाद मुशायरे में जो नज्म सुनाई थी, उसके एक मिसरे का सार मुझे याद था- मेरी कलम तो एक अदालत है। हिंदी के अधिकांश, बड़े बुद्धिजीवी या साहित्य विचारक उर्दू कविता को शराब और इश्क की कविता मानते रहे हैं। हिंदी रचनाकार साहित्यिक गोष्ठियों में बोलते वक्त सबसे ज्यादा उद्धरण उर्दू की शायरी से ही देते हैं। फिर भी वे उर्दू को कभी स्वीकार नहीं करते। उन्हें पता नहीं है कि उर्दू ने किस तरह अपनी शायरी को अदालत में या फैज की तरह एक तलवार में या मेरी मित्र फहमिदा रियाज की तरह तेजाब में तब्दील किया है। हैरानी होती है कि जहां फैज को चार साल जेल की कोठरी में तन्हाई झेलनी पड़ी। फराज और फहमिदा को देश छोड़ना पड़ा, हिंदी का कवि उपनिषद कथाएं लिख कर कितने सुकून की जिंदगी बिताता है और जानकी यात्राएं करके रामरथयात्रियों को कितना खुश करता है। हिंदी में मुक्तिबोध से लेकर केदारनाथ अग्रवाल, विष्णु खरे और मंगलेश डबराल तक बड़े जोशोखरोश के साथ व्यवस्था विरोधी रचनाएं लिखते रहे हैं लेकिन ऐसी कि जिन व्यवस्था का ये विरोध करते हैं, वही उनको अच्छे इनामोइकराम से नवाजती रहती है। जो इश्क और हाला पर नहीं व्यवस्था के विरोध पर दफ्ती की तलवारें भांजते हैं, उनका वास्तविक चरित्र हैरान करता है। ऐसे ही एक तथाकथित विद्रोही कवि मित्र एक व्यावसायिक प्रतिष्ठान की मासिक पत्रिका के संपादक हुए तो उन्होंने लिखने के लिए निमंत्रित किया। लिखा कुछ नहीं जा सका क्योंकि उनकी शर्त थी कि अयोध्या, राम और हिन्दुत्व के विरुद्ध कुछ न लिखा जाए। हिंदी लेखन में यह सुविधाजीवी व्यवस्था विरोध कहां से आया? कैसे यह हुआ कि तलवार चमकाओ लेकिन दफ्ती की। उन्हें यह देखना चाहिए कि जिन दिनों प्रयोगवादी और नई कविता के जुलूस हिंदी में निकल रहे थे, उन दिनों फैज रावलपिंडी विद्रोह के मामले में जेल में थे। जब हिंदी में कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम की मलाई खाई जा रही थी उन्हीं दिनों फैज जेल से बाहर आए थे। वे दुबारा 1958 में सुरक्षा कानून में गिरफ्तार हुए थे। तब हिंदी में बहुत सुख-चैन के दिन थे। दिनकरउर्वशी लिख रहे थे,धर्मवीर भारती 'कनुप्रिया'। एक और लेखक कठोपनिषद् पर खंड काव्य लिख रहे थे। यह स्थिति हिंदी में कैसे और कहां से आई? पश्चिम में चार सदी पहले जो इन्लाइटेनमेंट आया था और जिसमें पश्चिम के बौद्धिक जगत में तार्किक विज्ञानबोध को विचार के बुनियादी तत्व का स्थान पाया था उसके प्रति हिंदी में पिछली सदी के अंत में गहरा मोह पैदा हुआ। राम विलास शर्मा जैसे कुछ लोग इसी के शैदाई हो गए और उन्हें हिंदी में एक बड़ी प्रतिमा मिल गई- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र। यह दिलचस्प है कि इसी देश में जिस समय उर्दू में मीर और ग़ालिब हुए थे, हिंदी में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हुए थे, जो ज्यादा बड़ी कविताएं बर्तानिया के राजकुमार पर लिख रहे थे। तुलना कीजिए, एक तरफ ग़ालिब की शायरी और दूसरी तरफ भारतेन्दु कृष्ण चरित्र, प्रेम फुलवारी या फिर प्रिंस ऑफ वेल्स के बीमार होने पर कविताएं लिख रहे थे-जिनकी माता सकल प्रजा गण की जीवन प्राण /तिनहि निरोगी की जिए यह विनवत भगवान। जिस हिंदी कवि के लिए सबसे बड़ा इन्लाइटेनमेंट बर्तानवी राजकुमार के स्वस्थ होने में हो, हिंदी का वही चरित्र हिंदी कविता की दुनिया में आज भी हावी है। हिंदी के विद्रोही कवि त्रिलोचन अपनी कविता में हिंदू मिथक महत्त्वपूर्ण मानते हैं। राम विलास शर्मा तो ऋग्वेद और रामचरित मानस के लगभग उपासक ही थे। रोचक तथ्य तो यह है कि ऋग्वेद मूल पढ़ने के बजाय उन्होंने सिर्फ सातवलेकर को ही पढ़ा था। हैरानी होती है कि कितनी बड़ी तादाद में किताबें हिंदू मिथकों पर छपती हैं। दक्षिणोश्वर का परमहंस, कामदेव के पत्र शिव के नाम, सुमित्रानंदन, द्रोण की आत्मकथा, द्रौपदी की आत्मकथा, कृष्ण की आत्मकथा और शिवपुत्री नर्मदा जैसी किताबें सिर्फ उन मिथकों पर देखी जा सकती हैं, जो त्रिलोचन को भी खासे ही प्रिय थे। सच यह है कि वामपंथ के बावजूद हिंदी में इन्लाइटेनमेंट कभी आया ही नहीं क्योंकि हिंदी का बुनियादी चरित्र ही इन्लाइटेनमेंट विरोधी है जबकि उर्दू के साथ ऐसा नहीं है। यही वजह है कि उर्दू के प्रति हिंदी में इतनी ज्यादा नफरत है, थोड़े से जनवादियों को छोड़ कर।

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