संस्कृत को देवभाषा माना जाता है। इसी आधार पर नागरी लिपि को देवनागरी कहते हैं। विद्वान लोग बताते हैं कि संस्कृत भारत में कभी जनभाषा नहीं रही, जैसे मुगल काल में फारसी और ब्रिटिश काल में अंग्रेजी जन भाषा नहीं बन सकी, लेकिन आदि काल से धार्मिक कृत्यों की भाषा संस्कृत ही रही है। संस्कृत ही लंबे समय तक साहित्य की भाषा रही। बाद में अपभ्रंश, पाली आदि जनभाषाओं में भी साहित्य रचा जाता रहा। अंतत: आधुनिक भारतीय भाषाओं का उदय हुआ और लगभग पूरा का पूरा भारतीय साहित्य इन्हीं भाषाओं में लिखा जाने लगा। इससे सबसे बड़ी बात यह हुई कि कम पढ़े-लिखे लोग भी साहित्य पढ़ने लगे और जो निरक्षर थे, वह सुनकर इसका आनंद लेने लगे। कह सकते हैं कि जब जन भाषाओं में साहित्य लिखा जाने लगा तब जाकर वह जनता के करीब आया। इससे साहित्य का और उसकी भाषा का चरित्र भी बदला। इस परिवर्तन को वाल्मीकि के रामायण और तुलसी दास के रामचरितमानस के बीच महसूस किया जा सकता है। वाल्मीकि की रामायण शायद कुछ हजार या लाख लोगों ने पढ़ी होगी पर रामचरितमानस असंख्य पीढि़यों से करोड़ों नर-नारियों की प्यास बुझाता रहा है। विडंबना यह है कि जीवन की भाषा बदली तो साहित्य की भाषा बदली, व्यवसाय-वाणिज्य की भाषा बदली तो राजनीति और प्रशासन की भाषा बदली, लेकिन धर्म की भाषा नहीं बदली है। आज भी विवाह, पूजा-पाठ, दाह संस्कार आदि अवसरों पर उन्हीं मंत्रों का पाठ किया जाता है। इस स्थिति पर विचार करने की जरूरत है। संभव है, किसी जमाने में ऐसे ब्राह्मण होते होंगे जो संस्कृत मंत्रों और श्लोकों का सही उच्चारण कर पाते थे और उनका सम्यक अर्थ समझ सकते होंगे। आज ऐसे ब्राह्मणों की संख्या उंगलियों पर गिने जाने जितनी होगी। अशुद्ध संस्कृत, अशुद्ध उच्चारण और जजमान की समझ में कुछ भी न आना जैसे अन्य अनेक कारण हैं कि धार्मिक अवसरों पर जो संस्कृत के श्लोक पढ़े जाते हैं, उनका जन भाषाओं में अनुवाद हो और जनभाषाओं में ही उनका चलन हो। इससे देवी-देवताओं और भारतीय जनता का संबंध नया तथा प्रगाढ़ हो सकता है। अभी तो यह संबंध ज्यादातर एक ऐसे दुभाषिए के जरिये होता है जिसे न तो देवी-देवताओं से मतलब है और न अपने जजमानों से। उसका एकमात्र सरोकार पंडिताई के अपने व्यवसाय से होता है। अगर किसी को यह प्रस्ताव अजीब लगता हो तो मैं बाइबिल का उदाहरण देना चाहूंगा। मूल बाइबिल हिब्रू भाषा में लिखी गई थी। बाद में लैटिन भाषा में उसका अनुवाद हुआ। पोप रोम में ही रहता था और चर्च के पूरे तंत्र पर उसकी हुकूमत थी। तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में ईसाइयत का घोर पतन हुआ। इसका एक पहलू यह था कि चर्च के अधिकारियों द्वारा मुक्ति पत्र बेचे जाने लगे। किसी ने कितना भी पाप किया हो, उसने मुक्ति पत्र खरीद लिया तो माना जाता था कि उसके सारे पाप धुल गए और उसे ईश्वर की कृपा जरूर प्राप्त होगी। लोग इस तरह की बातों पर इसलिए भी विश्वास कर लेते थे, क्योंकि बाइबिल उन्होंने पढ़ी ही नहीं थी। बाइबिल लैटिन भाषा में उपलब्ध थी और यूरोप के विभिन्न देशों के लोग अपने-अपने देश की भाषा बोलते-लिखते और पढ़ते थे। रोमन चर्च की तानाशाही का पहला विरोध किया जर्मनी के मार्टिन लूथर ने। उसने ईसाइयत की रूढि़यों का जबरदस्त विरोध किया, मुक्ति पत्रों को धोखा करार दिया और बाइबिल का अनुवाद अपने देश की भाषा जर्मन में किया। इसके बाद उसे चर्च से बाहर निकाल दिया गया। तब उसने प्रोटेस्टेंट मत की स्थापना की। मार्टिन लूथर की देखा-देखी अंग्रेजी, फ्रेंच, इटैलियन आदि भाषाओं में भी बाइबिल के अनुवाद होने लगे। परिणामस्वरूप ईसाइयत का अभूतपूर्व विस्तार हुआ और लोगों के लिए बाइबिल को पढ़ना आसान हो गया। आज लगभग हर भाषा में बाइबिल उपलब्ध है। कल्पना कीजिए, अगर मार्टिन लूथर ने विद्रोह नहीं किया होता और बाइबिल सिर्फ लैटिन तक सीमित रह जाती तब भी क्या ईसाइयत इतनी तेजी से फैलती और फैलती भी तो कितने लोग उसके मर्म तक पहुंच पाते। मेरे खयाल से बाइबिल के संदर्भ में जो कहानी रोमन की है, धार्मिक विधि-विधान के क्षेत्र में वही कहानी संस्कृत की है। संस्कृत के कारण विवाह की वेदी पर बैठे हुए वर और वधू समझ ही नहीं पाते कि वे किन बातों की शपथ ले रहे पूजा के दौरान घर के लोग समझ नहीं पाते कि वे किस देवी या देवता से क्या निवेदन कर रहे हैं और अन्य अवसरों पर भी तोते की तरह वे श्लोक दुहराते जाते हैं जिनका गलत-सही उच्चारण उनका पंडित करता जाता है। इस तरह संस्कृत जो दुनिया की महानतम भाषाओं में एक है भारतीयों के लिए काले जादू की भाषा बन गई है। जब वेदों का भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो सकता है, उपनिषदों का हो सकता है, स्मृतियों और पुराणों का हो सकता है तो कोई वजह नहीं है कि धार्मिक आयोजनों में पढ़े जाने वाले श्लोक संस्कृत मे ही चलते रहें। जब दुनिया भर के ईसाई अपनी-अपनी भाषा में ईश्वर को संबोधित कर सकते हैं तो कोई वजह नहीं कि हमारे देवी-देवता लोक भाषाओं में की गई प्रार्थनाओं को अनसुना कर दें। वैसे ईश्वर से असली संवाद तो मौन में ही होता है जो सभी भाषाओं में समाहित है।
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